दधिसागर मथने वाली “दधिमथीमाता” “Dadhimati Mata”

Dadhimati Mata History in Hindi : नागौर जिले की जायल (Jayal) तहसील में जिला मुख्यालय से लगभग 40 की.मी. उत्तर-पूर्व में दधिमथीमाता (Dadhimati Mata) का प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिर अवस्थित है। इस मंदिर के आस पास का प्रदेश प्राचीन काल में दधिमथी (दाहिमा) क्षेत्र कहलाता था। उस क्षेत्र से निकले हुए विभिन्न जातियों के लोग, यथा ब्राह्मण,राजपूत,जाट  आदि दाहिमे ब्राह्मण, दाहिमे राजपूत, दाहीमे जाट कहलाये।

दाहिमा (दधीचक) ब्राह्मणों की कुलदेवी को समर्पित यह देव भवन भारतीय स्थापत्य एवं मूर्तिकला का गौरव है। श्वेत पाषाण से निर्मित यह शिखरबद्ध मंदिर पूर्वाभिमुख है तथा महामारु (Mahamaru) शैली के मंदिर का श्रेष्ठ उदाहरण है। वेदी की सादगी जंघा भाग की रथिकाओं में देवी-देवताओं की मूर्तियाँ, मध्य भाग में रामायण दृश्यावली एवं शिखर प्रतिहारकालीन परम्परा के अनरूप है।

Adhar Stambh in Dadhimati Mata Temple, Goth-Manglod (Nagaur)
Adhar Stambh in Dadhimati Mata Temple, Goth-Manglod (Nagaur)

यह मंदिर प्रतिहार नरेश भोजदेव प्रथम  (836-892 ई.) के समय में बना है। इस मंदिर से चमत्कार की अनेक कथाएँ जूड़ी है। पौराणिक मान्यता के अनुसार विकटासुर नामक दैत्य संसार के समस्त पदार्थों का सारतत्व चुराकर दधिसागर में जा छिपा था देवताओं की प्रार्थना पर स्वयं आदिशक्ति ने अवतरित होकर विकटासुर का वध किया और सब पदार्थ पुनः सत्वयुक्त हुए। दधिसागर को मथने के कारण देवी का नाम दधिमती पड़ा। एक अन्य जनश्रुति के अनुसार प्राचीन में महाराजा मान्धाता के यज्ञकुण्ड से माघ शुक्ल सप्तमी के दिन देवी दधिमती प्रकट हुई। लोकविश्वास के अनुसार यह विशालकाय भव्य मंदिर अपने सम्पूर्ण रूप में जमीन से स्वतः प्रकट हुआ है। इस सम्बन्ध में जनश्रुति है की प्राचीन काल में किसी समय देवी की यह प्रतिमा तीव्र ध्वनि के साथ धरती से निकलना प्रारम्भ हुई तो इतनी तेज आवाज हुई की जिसे सुनकर कर आसपास के ग्वाले व गायें भयभीत होकर वहाँ से भाग गए। इस कारण माता का कपाल मात्र ही बाहर निकल पाया। वर्तमान में चाँदी का टोपा कपाल पर रखा है, जिसमे माता का चेहरा अंकित है।

Dadhimathi Mata Video HD

दधिमथीमाता के इस विशाल मंदिर का विक्रम संवत 1906 के लगभग दाहिमा ब्रह्मचारी विष्णुदास तथा तदनन्तर दाहिमा ब्राह्मण महासभा द्वारा नवीनीकरण एवं जीर्णोद्धार करवाया गया। इस मंदिर में चैत्र अश्विन के नवरात्रों में मेले लगते है।

Dadhimati Mata Temple, Goth-Manglod (Nagaur)
Dadhimati Mata Temple, Goth-Manglod (Nagaur)

आद्यशक्ति महामाया दधिमथी का पावन जीवन चरित्र

– पं. रघुनाथप्रसाद सूंटवाल

है किस वाणी एवं कलम में शक्ति, जो मां के गुणों का गुणगान करें।

यह सभंव हो सकता है तभी, जब कृपामयी मां अपना आशीर्वाद प्रदान करें।।

स्थान एवं उत्पत्ति का समय – राजस्थान के (अजमेर जिला) में पुष्कर क्षेत्र के उत्तर की ओर आठ योजन तक दधिमथी क्षेत्र माना गया है, जायल (जि. नागौर) के गोठ-मांगलोद ग्राम में दधिमथी का मुख्य स्थान है। त्रेतायुग में अयोध्या के राजा मान्धाता द्वारा संपन्न किये गये सात्विक यज्ञ में माघ शुक्ला सप्तमी के दिन नारायणी देवी ने प्रगट होकर राजा को मनोवांछित आशीर्वाद के साथ इस स्थान पर अवतरित होने का वचन प्रदान किया था। विकटासुर से त्रस्त देवताओं द्वारा देवी से उसका वध करने के लिए प्रार्थना करने पर भगवती नारायणी ने यहाँ अवतार ग्रहण किया एवं दधि को मथकर असुर द्वारा छिपाये गये वेदों का उद्धार करने के कारण आद्यशक्ति महामाया दधिमथी नाम से प्रसिद्ध हुई। इस प्रकार दाधीचों की यह आराध्य कुलदेवी साक्षात महामाया नारायणी देवी का ही स्वरूप है।

मंदिर के जीर्णोद्धार का प्रमाणिक समय – पुरातत्त्वज्ञों की जानकारी एवं विश्लेषणों के आधार पर मंदिर का जीर्णोद्धार गुप्त संवत् २८४ में हुआ था। शिखर का निर्माण विक्रम संवत् ७४५ के आसपास हुआ, विक्रम संवत् १७३५ के लगभग कमलापतिजी के वंशजों ने यहां कमरे बनवायें तथा विक्रम संवत् १९०३ में ब्रह्मचारी विष्णुदासजी ने चार चौके लगवाये। आज यह पुण्य स्थान एक भव्य मंदिर के रूप में शोभायमान है। दधिमथी देवी ने प्रगट होने से पहले आकाशवाणी द्वारा ग्वालों को सूचित किया कि मेरे प्रगट होते समय आवाज नहीं करना। इसके बाद देवी के अवतरित होने हेतु पृथ्वी के फटने पर सिंहमयी गर्जना के साथ भूमि से देवी का कपाल बाहर आया परंतु ग्वालों द्वारा भयभीत होकर कोलाहल करने के कारण देवी की सम्पूर्ण प्रतिमा का प्रगट न होने के स्थान पर मात्र कपाल ही बाहर आने से इस स्थान का नाम कपाल क्षेत्र पड़ा। ब्रह्मचारी श्री विष्णुदासजी ने इस कपाल पर सप्त धातु का कपाल अर्पित किया। यह महामाया भगवती दधिमथी दाधीच वंशजों की आराध्य कुल देवी है।

दाधीच वंशजों की कुलदेवी – देवताओं द्वारा याचना करने पर वृत्रासुर को मारने के लिए अपनी अस्थियों का दान देने हेतु प्रात: स्मरणीय महर्षि दधीचि ऋषि द्वारा योग शक्ति से अपना शरीर का त्याग कर देने पर मुनि की पत्नी सुवर्चा द्वारा प्राण त्यागने के उपरांत उनके पुत्र पिप्पलाद मुनि की रक्षा करने के हेतु मुनि पत्नी सुवर्चा के आदेश का पालन करने के लिए देवताओं एवं वनस्पतियों की प्रार्थना पर आद्यशक्ति महामाया ने अथर्वा मुनि के यहां अवतरित होकर पिप्पलाद मुनि का पालन किया एवं दाधीच वंशजों की कुलदेवी के रूप में विख्यात हुई। इस प्रकार दधिमथी महर्षि दधीचि की बहिन है।

श्रीदधिमथी माता की कुलदेवी मान्यता वाले समाज/गोत्र/खांप

 श्री दधिमथी माता की अनेक समाजों में कुलदेवी के रूप में मान्यता है। जिस क्षेत्र में श्री दधिमथी माता का मन्दिर स्थित है वह क्षेत्र श्रीमाताजी के नाम से दाधिमथ (दाहिमा) कहलाता है। प्रसिद्ध इतिहासकार श्री गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के मतानुसार दाहिमा क्षेत्र से निकले हुए विभिन्न जातियों के लोग दाहिमा ब्राह्मण, दाहिमा राजपूत, दाहिमा जाट आदि कहलाए। ये सब दाहिमा श्री दधिमथी माता को कुलदेवी मानते हैं। दाहिमा ब्राह्मण महर्षि दधीचि के वंशज होने से दाधीच भी कहलाते हैं। माहेश्वरी सेवक पत्रिका के सम्पादक श्री पुरुषोत्तम बिहानी ने अपनी पुस्तक माहेश्वरी समाज की कुलदेवियाँ नामक पुस्तक में लिखा है कि श्री दधिमथीमाता माहेश्वरी समाज के बाहेती, डागा, असावा, चेचाणी, मनियार खांप की कुलमाता है। उन्होंने श्री दधिमथीमाता के मन्दिर के पुजारी से प्राप्त सूचना के आधार पर लिखा है कि कचौल्या, जाखेटिया, इनाणी, लोया, गिलड़ा, पलोड़ खांप वाले भी कुलमाता को मानते हैं। अपने कथन के प्रमाण में श्री बिहानी ने लिखा है कि मन्दिर परिसर में जाखेटिया परिवार द्वारा यज्ञशाला का निर्माण कराया हुआ है तथा झंवर परिवार द्वारा कमरा एवं मनियार चेचाणी परिवार द्वारा फर्श का निर्माण करवाया हुआ है।

श्री रामनारायण सोनी ने अपनी पुस्तक मैढक्षत्रिय स्वर्णकार जाति का इतिहास में बताया है कि मैढ क्षत्रिय स्वर्णकार समाज के अलदायण, अलवाण, अहिके, उदावत, कटलस, कपूरे, करोबटन, कलनह, काछवा, कुक्कस खोर और माहरीवाल गोत्रों की कुलदेवी श्रीदधिमथीमाता हैं।

अग्रवाल समाज की कुलदेवी श्रीमहालक्ष्मीमाता है, इसलिए वे कुलदेवी श्री महालक्ष्मी के अवतारों को भी कुलदेवी मानते हैं। श्रीदधिमथीमाता श्री महालक्ष्मी की अवतार हैं। इसलिए दाहिमा क्षेत्र के निवासी अग्रवाल उन्हें कुलदेवी मानते हैं।

दधिमथी माता के उपासक यह अवश्य पढ़ें  –   दधिमथी माता का दुर्लभ मङ्गल  (दोहा व चौपाइयाँ )  तथा  संस्कृत श्लोकमय दधिमथी माता की प्राकट्य कथा (हिन्दी अनुवाद सहित)

श्री दधिमथी माता से सम्बन्धित साहित्य

 भारतीय समाज में कुलदेवी की मान्यता आदिकाल से प्रचलित है। वैदिक युग में समाज कुलों में विभक्त होता था। प्रत्येक कुल में परम्परागतरूप से कुलदेवी की आराधना की जाती थी।

साहित्य समाज का दर्पण होता है। इसलिए साहित्य में भी कुलदेवीभक्ति व्यक्त हुई है। गोठ-मांगलोद की श्रीदधिमथी माता अनेक समाजों व कुलों में कुलदेवी के रूप में पूजित है। उनके प्रति भक्तिभाव व्यक्त करने के लिए तथा जनसाधारण को उनकी महिमा से अवगत कराने के लिए साहित्यकारों ने श्रेष्ठ रचनाएँ प्रस्तुत कीं।

आदिशक्ति श्रीमहालक्ष्मीमाता ने महर्षि अथर्वा की पुत्री तथा महर्षि दधीचि की बहन के दधिमथी रूप में अवतार लिया था। इसलिए श्रीदधिमथीमाता से सम्बन्धित साहित्य में उनके माता-पिता शान्ति और महर्षि अथर्वा तथा भाई महर्षि दधीचि का सुन्दर चरित्र-चित्रण हुआ है।

श्रीदधिमथी माता के विषय में प्रमुख रचना दधिमथीपुराण है। यह संस्कृत भाषा में रचित प्राचीन कृति है। इसकी कथावस्तु के अनुसार सन्तानहीन महर्षि अथर्वा अपनी पत्नी शान्ति के साथ सन्तान हेतु तपस्या करते हैं। देवी प्रसन्न होकर वरदान माँगने के लिए कहती हैं तो महर्षि अथर्वा पुत्रप्राप्ति का वरदान माँगते हैं। इस वरदान से असन्तुष्ट होकर शान्ति कन्या का महत्व बताते हुए कन्या प्राप्ति का भी वर मांगने के लिए उनसे अनुरोध करती है। देवी के वरदान से पुत्र के रूप में महर्षि दधीचि का जन्म होता है तथा पुत्री के रूप में स्वयं आदिशक्ति श्रीमहालक्ष्मीमाता अवतरित होती हैं। वे विकटासुर का संहार करती हैं। श्रीदधिमथीपुराण एक दुर्लभ कृति है।

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डॉ. रामकुमार दाधीच द्वारा श्री दधिमथीपुराण की कथा के आधार पर राजस्थानी भाषा में ”श्री दधिमथीमाता मंगल” की रचना दोहा-चौपाई छन्दों में की गई है। ‘श्रीदधिमथीमाता मंगल’ पाठ के लिए उपयोगी रचना है। यह अप्रकाशित है। इसमें श्रीदुर्गासप्तशती की तरह तीन चरित्र हैं। प्रथम चरित्र में दधिमती (वरदायिनी) श्री महालक्ष्मी द्वारा महर्षि अथर्वा एवं शान्ति को वरदान देने की कथा है। दूसरे चरित्र में श्रीमहालक्ष्मी के दधिमथी (भक्तदु:खनाशिनी) रूप में अवतार लेकर भक्तों पर की गई कृपा की कथाएँ वर्णित हैं। तृतीय चरित्र में कुलदेवी तत्त्व का विवेचन तथा कुलदेवी रूप में श्रीदधिमथीमाता द्वारा भक्तों पर की गई कृपा की कथाएँ हैं।

आचार्य राधामोहन उपाध्याय ने भारतायनम् नामक संस्कृत महाकाव्य की रचना की है जो श्री बड़ा बाजार कुमार सभा पुस्तकालय कोलकाता द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसमें तीन उल्लासों वाला दधीचिचरित भी है। दधीचिचरित में दधिमथी माता की महिमा भी वर्णित है।

भारत में स्थित कुछ दधीचि तीर्थ

– सं. ओमप्रकाश मिश्र ”नावा”

कुरूक्षेत्र :- इस स्थान पर महर्षि दधीचि का आश्रम, जो सरस्वती नदी के तट पर स्थित है।

मिश्रत :- नेमिषारण्य से 5 मील दूर सीतापुर से 13 मील पर दधीचि कुण्ड तीर्थ है। कहा जाता है कि वहाँ महर्षि दधीचि का आश्रम था। वहां दधीचि ऋषि का मन्दिर भी है। कहते हैं कि दधीचि कुण्ड में समस्त तीर्थों का जल मिश्रित किया गया है।

दधि स्थली :- सिद्धपुर (गुजरात) से 7 मील पर दैवली ग्राम है इसका वास्तविक नाम दधिस्थली है। वहां सरस्वती तट पर बटेश्वर महादेव का भव्य मन्दिर है। कहा जाता है यहाँ पर महर्षि दधीचि का आश्रम था। सिद्धपुर तथा पाटण से यहां की बसें मिलती है।

अहमदाबाद :- साबरमती नदी तट पर दुब्बेश्वर मन्दिर है कहा जाता है यहां पर महर्षि दधीचि का आश्रम था।

देवर (गुजरात) :- गुजरात के भड़ोच में दधीचि ऋषि का आश्रम है। दूधनाथ तथा भगवती का स्थान है।

दहेवाण (गुजरात) :- महीसागर जिलाखेड़ा संगम पर एक गांव है। यहाँ पर शिवलिंग की प्रतिष्ठा की गई थी जो दण्ड पाणीश्वर के नाम से विख्यात है। पास में ही तालाब है जो दण्डीसर के नाम से प्रसिद्ध है। यहां पर दधीचि ब्राह्मणों की आबादी है।

दौहद :- प्राचीन काल में दोहरे का नाम ”दधिपुर’ था। यहाँ बहने वाली नदी ”दधिमती मन्दिर देघेश्वर महादेव एवं दधिप्रथ’ नाम आज भी अभिहित किये जाते हैं। नदी के दक्षिणी किनारे पर दधीचि मुनि का आश्रम था। नदी के कगार में मुनि की गुफा थी। उसका कुछ भाग अब भी शेष है। यह वही स्थान है जहां पौराणिक युग में देवासुर संग्राम में महर्षि दधीचि ने अपना प्रकाशमान अस्थिदान दिया था। दधिमथी नदी के दूसरे किनारे पर स्थित ऋषि आश्रम में आज भी कृष्ण पक्ष की अष्ठमी को मेला लगता है।

पुष्कर :- ब्रह्मसरोवर के दधीचि घाट पर महर्षि दधीचि का मन्दिर है।

श्रीदधिमथीमाता से सम्बद्ध संस्थाएँ

 श्रीदेवीभागवतपुराण में भगवती जगदम्बा ने जीवमात्र को अपना ही स्वरूप बताया है तथा जीवमात्र की सेवा का उपदेश दिया है। इस दृष्टि से कुलदेवी श्रीदधिमथी के श्रद्धालु उपासकों ने कुलदेवी की महिमा के प्रचार-प्रसार तथा समाजसेवा कार्यों के लिए अनेक संस्थाओं की स्थापना की है। इस दिशा में कार्य करने वाली अग्रणी संस्था अखिल भारतवर्षीय दाहिमा (दाधीच) ब्राह्मण महासभा है। इसकी शाखाएँ देश के विभिन्न भागों में स्थित हैं। महासभा के मुखपत्र दधिमती मासिक पत्रिका में महासभा एवं देश के दाधीच संगठनों की गतिविधियों का विवरण प्रकाशित किया जाता है।

श्रीदधिमती माताजी मन्दिर प्रन्यास गोठमांगलोद द्वारा दर्शनार्थियों के लिए समस्त सुविधाओं से युक्त निवास एवं भोजन की व्यवस्था पूरे वर्ष उपलब्ध कराई जाती है। महर्षि दधीचि वेद विद्यालय गोठमांगलोद में परम्परागत रूप से वेदाध्ययन की व्यवस्था है।

श्री अखिल भारतीय दाधिच सेवा ट्रस्ट पुष्कर द्वारा कुलदेवी श्री दधिमथी माता की सेवा में समर्पित अनेक कार्यक्रम आयोजित किए जाते है। ट्रस्ट द्वारा तीर्थगुरु पुष्करराज में तीर्थयात्रियों हेतु दाधीच भवन का निर्माण कराया गया है।

अखिल राजस्थान महर्षि दधीचि जनकल्याण संस्थान अजमेर द्वारा समाजहित में विभिन्न गतिविधियों का संचालन किया जाता है। संस्था की एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति समाज के निर्धन मेधावी छात्रों को अध्ययनार्थ सहायता उपलब्ध कराना है।

रायपुर (कर्नाटक) में श्री दाधीच प्रगति समाज तथा श्री दाधीच युवा संघ सामाजिक सेवा प्रवृतियों में तत्पर हैं। हैदराबाद में दाहिमा समाज  (रजि.) तथा चेन्नई में श्री मद्रास दाहिमा ब्राह्मण महासभा ट्रस्ट के तत्वावघान में प्रतिभा सम्मान आदि विभिन्न कार्यक्रम किये जाते हंै। श्री दाधीच परिषद कोलकाता समाजसेवा के कई दशकों का इतिहास समेटे हुए है। इसके द्वारा संचालित महर्षि दधीचि सभागार में तथा अन्यत्र विभिन्न सेवा कार्यो का आयोजन होता है। दाधीच समाज मुंबई द्वारा समाज एवं संस्कृति के हित में विभिन्न सेवा प्रवृत्तियाँ संचालित है। दाधीच परिषद सीकर द्वारा श्री दधिमथी माता मन्दिर सीकर में समाज हितार्थ भवन स्थापित किया गया है।

श्रीदधिमथी माता के परम भक्त श्रीविष्णुदास ब्रह्मचारी

श्रीदधिमथी माता के भक्तों में श्रीविष्णुदास ब्रह्मचारी का महत्वपूर्ण स्थान है। कुचेरा निवासी श्री सीताराम काकड़ा ने स्वप्रकाशित पुस्तक दधिमती भजनावली में उनका संक्षिप्त परिचय दिया है। उनके मतानुसार गोठमांगलोद के प्राचीन मन्दिर का जीर्णोद्धार मय शिखर श्री विष्णुदासजी ब्रह्मचारी के हाथों से करवाया गया है जिसका प्रमाण इस मन्दिर में लगा शिलालेख है। विष्णुदासजी ने भगवती श्री दधिमथी से उदयपुर महाराणा को सन्तान दिलाई थी एवं उनका कष्ट निवारण कराया था। महाराणा विष्णुदासजी को गुरु मानते थे जिसका वर्णन उदयपुर राजघराने की पुरानी बहीयात में मौजूद है। विष्णुदासजी के वंश में हर पीढी में आज भी एक व्यक्ति ब्रह्मचारी रहकर भगवती की सेवा करता है।

आज भी श्री विष्णुदास जी इस मन्दिर के प्रांगण में कई भक्तों को दर्शन देते है। लेकिन भक्त इसे प्रकट करना नहीं चाहते हैं। यह आभास सुबह करीब चार और पाँच बजे के बीच कई बार भक्तों को हुआ है। उनकी खड़ाऊ से चलने की आवाज श्री सीताराम काकड़ा ने विष्णुदासजी का यह विवरण उनके एक वंशज ब्रह्मचारी के हवाले से दिया है। वे लिखते हैं – इन्हीं (विष्णुदासजी) के वंशज एक बूढे ब्रह्मचारीजी ने मेरे बचपन में बताया था जो इस मन्दिर में हर नवरात्र में आते थे।

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श्री दधिमथी माता जी की आरती

ॐ जय दधिमथी माता, ए मैया जय दधिमथी माता।

सुख करणी दुख हरणी, ईश्वरी अन्नदाता।। ॐ जय ।।१।।

आदि शक्ति महारानी, त्रिभुवन जय गाता।

प्रणत पाल जय करणी, सुर नर मुनि ध्याता।। ॐ जय ।।२।।

विष्णु पति तिहारो, शांति है माता।

पिता अथर्वा ऋषि, दधीचि मुनि भ्राता।। ॐ जय ।।३।।

सार चुरा विकटासुर, दधि बिच खो जाता।

दधिमथी विकट विडार्यो, कर जग सुख साता।। ॐ जय ।।४।।

प्रकट भई भू लोक में, मांगलोद माता।

अटल ज्योति जगती है, दर्शन मन भाता।। ॐ जय ।।५।।

शीश छत्र सोना का, बसन सुरख राता।

रूप अनूप देखकर, रति पति सकुचाता।। ॐ जय ।।६।।

देश देश के यात्री, दर्शन हित आता।

देख छवि माता की, चित्त है सुख पाता।। ॐ जय ।।७।।

हुए निरजंन विधि से, वेद स्तुति गाता।

चूरमा भोग लगत है, आचमन करवाता।। ॐ जय ।।८।।

चैत आसोज में मेला, यात्री बहुत आता।

महिमा बरनी न जावे, पार नहीं पाता।। ॐ जय ।।९।।

श्री दधिमथी मां की आरती, जो कोई नर गाता।

कहे नाथ कर जोड़े, भक्तिमुक्तिपाता।। ॐ जय ।।१०।।

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श्री कपाल कुण्ड पर सवारी की आरती

जय जय जनकसुनन्दिनी, हरिवन्दिनी हे।

दुष्टनिकन्दिनी मात, जय जय विष्णुप्रिये।

सकल मनोरथ दोहनी, जगसोहिनी हे।

पशुपतिमोहिनी मात, जय जय विष्णुप्रिये।

विकट निशाचर कुंथिनी, दधिमंथिनी हे।

त्रिभुवन ग्रंथिनी मात, जय जय विष्णुप्रिये।

दिवानाथ सम भासिनी, मुख हासिनी हे।

मरूधरवासिनी मात, जय जय विष्णुप्रिये।

जगदंबे जय कारिणी, खल-हारिणी हे।

मृगरिपुचारिणी मात, जय जय विष्णुप्रिये।

पिप्पलाद मुनिपालिनी, वपु शालिनी हे।

खल दलदालिनी मात जय जय विष्णुप्रिये।

तेज – विजितसोदामिनी, हरिभामिनी हे।

अयि गज गामिनी मात, जय जय विष्णुप्रिये।

धरणीधर सुसहायिनी, श्रुतिगायिनी हे।

वांछित दायिनी मात जय जय विष्णुप्रिये।

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दधिमथी माता जी का छन्द

छन्द गुण दधमथ का गाता, सकल की स्हाय करो माता। टेर।

दधिमथी मोटी महा माई, महर कर गोठ नगर आई।

गवाल्यो चरा रह्यो गाई, कह्यो तुम बोलो मत भाई।

अभी मैं बाहिर जो आऊँ, लोक में सम्पत बपराऊँ।

दधिमथी बाहर नीसरी, धुन्ध भई दिन रैन।

हुई आवाज सिंह की, भिड़क भाग गई धेन।

गवालो गऊ घेर लाता, सकल की स्हाय करो माता।

गवालो! ‘हो हो’ कर रयो, बचन देवी का भूल गयो।

देवी तब बाहर नहीं आई, गुप्त तब मस्तक पुजवाई।

दधमथ की सेवा करे, जो कोई नर नार।

निश्चय होकर ध्यान, तो बेड़ा करदे पार।

दुख दारिद्र दूर जाता, सकल की स्हाय करो माता। छन्द।

गोठ एक मांगलोद मांई, बिराजे दधिमथी महामाई।

जंगल में देवल असमानी, उसी को जाणे सब प्राणी।

छत्र बिराजे सोहनो, चार भुजा गल हार।

कानां कुंडल झिल मिले, आप सिंह असवार।

नोपतां बज रही दिन राता, सकल की स्हाय करो माता। छन्द।

परचो साहुकार पायो, मात को देवल चिणवायो।

पोल ईक सूरज के सामी, कुंड का अमृत है पानी।

अधर खम्भ ऐसो बण्यो, जाणत सब है जान।

कलयुग में छिप जावसी, कोई सतयुग को सेनाण।

कलयुग करत लोग बातां, सकल की स्हाय करो माता। छन्द।

परचो इक पायो राणो, उदयपुर मेवाड़ी जाणो।

कारज उसका सिद्ध कीनों वचन से पुत्र देय दीनो।

सूतां सपनो आइयो, जाग सके तो जाग।

देऊँ गढ़ चित्तोड़ को, मेटूँ दिल का दाग।

द्रव्य ईक जूना भी पाता, सकल की स्हाय करो माता। छन्द।

रातका राणोजी जाग्यो, मात के पावां उठ लाग्यो।

मातको अखी वचन पाऊँ, देश में देवल चिनवाऊँ।

जब देवी का हुकम सूँ, आयो देश दिवाण।

मंदिर चिणवा भूप सूं ऊँचा किया निर्माण।

कुंड के पेड़ी बंधवाता, सकल की स्हाय करो माता। छन्द।

सेवक नित सेवा ही करता, ध्यान श्री दधिमत का धरता।

जोगण्या निरत करत भैरूँ डमक डम बाजत है डमरूँ।

मारवाड़ के मायने प्रकट भई है गोठ।

आपो आप बिराजे जननी, बाहर निकली जोत।

जातरी रात-दिवस आता, सकल की स्हाय करो माता। छन्द।

सम्वत् उन्नीसो दस में, छन्द गुण गायो रंग रस में।

चौथ सुद श्रावण के मासा, सकल की पूरो मन आशा।

दसरावो मेलो भरे, चैत्र आसोजां मांस।

देश देश का जातरी, पूरे मन की आश।

अन्न-धन दीजोजी माता, सकल की स्हाय करो माता। छन्द।

ब्राह्मण दायमो गाता, खींवसर नगरी मं रहता।

मात को नन्द छन्द गायो, मात के चरणां चित लायो।

जो जन गावे अरू सुणे, निश दिन धरे जो ध्यान।

गुरू बड़ा गुणवान है, ‘मूलचन्द’ महाराज।

जोड़कर ‘जेठूमल’ गाता सकल की स्हाय करो माता। छन्द।

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17 thoughts on “दधिसागर मथने वाली “दधिमथीमाता” “Dadhimati Mata””

    • दधिमती माता जी को रणवा जाटों की कुलदेवी बड़वा जी की पोथी में बताया गया है और हमनें ऐसा सुना भी है।
      अतः कोई अधिकृत जानकारी हो तो कृपया शेयर करें।

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  1. Dadhimati mata kya oswal ray gandhi ki bhi kuldevi he??ahake pujari kehte he
    Agar nhe he to ray gandhi ki kuldevi konsi
    Pls help kare

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