अथातो भृगु वंश जिज्ञासा-भार्गव वंश, गोत्र व कुलदेवी परिचय- डॉ. मनहर गोपाल भार्गव

Bhrigu Vansh : भृगुवंश विश्व के प्राचीनतम वंशों में से एक है। प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ ‘ऋग्वेद’ में भृगुओं का अनेक स्थलों पर पितर के रूप में स्मरण किया जाना ही उनकी प्राचीनता का ज्वलंत प्रमाण है। इस वंश का देवताओं के साथ सम्बन्ध रहा। भृगु पुत्री लक्ष्मी का विवाह त्रिदेवों में श्री विष्णु के साथ हुआ। इस प्रकार भृगु ऋषि विष्णुजी के श्वसुर थे। इन्द्र पुत्री जयन्ती का विवाह भृगुपुत्र शुक्राचार्य के साथ हुआ था। ये सम्बन्ध भृगु वंश की महत्ता को सिद्ध करते हैं।

गोत्र का क्या तात्पर्य है ?  इसकी क्या आवश्यकता पड़ी ?

‘गोत्र’ शब्द का वास्तविक अर्थ पशु बांधने का स्थान था। अति प्राचीन काल में जिनके पशु एक ही शाला में बाँधे जाते थे, वे सगोत्री कहलाते थे। साधारणतया ऐसे लोगों में एक ही पूर्वज की संतान सम्मिलित होने से ‘गोत्र’ शब्द का लौकिक अर्थ वंश हो गया। श्रौत सूत्रों के परिशिष्टों में कहा गया है – ‘यदपत्यं तद्गोत्रमित्युच्यते’ अर्थात् उन (ऋषियों) की संतानों को गोत्र कहते हैं। पाणिनी ने भी कहा है -‘अपत्यं पौत्रप्रभृतिगोत्रम्’ अर्थात् बेटे, पोते आदि संतान ही गोत्र है। पहले सब एक ही स्थान पर रहते थे। कालान्तर में जब वंश के लोगों की संख्या बढ़ी तो लोगों का एक स्थान पर रहना असंभव हो गया तो उन लोगों ने पृथक हो कर अपने रहने के अलग-अलग स्थान बनाए अर्थात् गोत्रों की शाखाएँ हो गई। ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि पहले कुल चार गोत्र थे – भृगु, अंगिरस, अथर्वण तथा वशिष्ठ। अथर्वण गोत्र के लोग फारस चले गए। अंगिरस गोत्र भृगु गोत्र में समाहित हो गया।

पहले हम लोगों का मूल गोत्र भृगु था। ‘भृगोरपत्यम्’ अर्थात् ‘भृगु की संतान’ होने के कारण ‘भृगु’ गोत्र का स्थान ‘भार्गव’ गोत्र ने ले लिया। फलस्वरूप मूल गोत्र/वंश ‘भार्गव’ हो गया। वंश विस्तार के कारण हमारे पूर्वज अलग-अलग स्थानों पर बस गए। उन महान पूर्वजों (ऋषिगण) के नाम पर अनेक शाखा-गोत्र बन गए, जिनका विवरण इस प्रकार है –

  1. वत्स – भृगु वंशावली में पहला नाम ‘वत्स’ ऋषि का मिलता है जो धातृ ऋषि के पुत्र थे। इनका निवास स्थान पूर्वी भारत था। इनका लिखा एक ग्रन्थ मिलता है, जिसका नाम ‘वत्स स्मृति’ है।
  2. वात्स्य – ये भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार थे। इनके नाम पर कई ज्योतिष ग्रन्थ उपलब्ध हैं। दुर्भाग्य से यह गोत्र ‘वत्स’ गोत्र में विलीन हो गया।
  3. विद – इनका ‘बिद’ नाम भी मिलता है। ये भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार थे ये सामद्रष्टा आचार्य थे। पंचविश ब्राह्मण (13.11.10) तथा जैमिनी उ. ब्रा.3. 1 में इनका पूरा नाम ‘विदन्वत् भार्गव’ बतलाया गया है।
  4. गालव – ये एक प्रसिद्ध ऋषि थे। इनके नाम से एक ग्रन्थ मिलता है, जिसका नाम ‘गालव स्मृति’ है। गोत्रकार के रूप में इनका नाम ‘संगालव’ है।
  5. गांगेय – इनका वास्तविक नाम गार्ग्य या गाग्ययिण था। ये भृगुकुल के एक गोत्रकार थे। गंगा तट पर रहने के कारण ये गांगेय कहलाए। इनका रचा एक ग्रन्थ ‘गार्ग्य स्मृति’ है।
  6. कोचहस्ति – ये भृगुकुल के गोत्रकार थे, जिनका वास्तविक नाम कोचहस्तिक था।
  7. काश्यपि – काश्यपि भृगुवंशी ऋषि तथा गोत्रकार हैं। इनके रचे दो ग्रन्थ मिलते हैं – ‘काश्यपि स्मृति’ तथा ‘काश्यपि धर्मशास्त्र’
  8. सिह्र – पुरानी Directories में लिखा है कि यह गोत्र नहीं पाया जाता है। सन् 1971 की जातीय जनगणना के समय (स्व.) नवीन चन्द्र भार्गव, दिल्ली को आगरा-मथुरा के गांवों के सिह्रलस गोत्रधारी कुछ परिवार मिले थे। उस समय इनकी गणना दस्सों में की गई थी। हमारी जाति में इस गोत्र के लोग भी हैं। यद्यपि ‘गोत्र प्रवरदर्पण’, ‘गोत्रप्रवर निर्णय’, ‘गोत्रप्रवरकारिका’, ‘गोत्रप्रवर भास्कर’, ‘गोत्र प्रवर मंजरी’,’गोत्र प्रवर विवेक’ आदि ग्रंथों में इस गोत्र का उल्लेख नहीं हुआ है।

गण तथा प्रवर

परशुराम के समय आठों गोत्र दो गणों में विभक्त हो गए – (क) जामदग्न्य गण (ख) अजामदग्न्य गण। वत्स, वात्स्य, विद, गालव, गांगेय और कोचहस्ति जामदग्न्य गण के अन्तर्गत आते हैं। शेष दो गोत्र काश्यपि तथा सिह्र अजामदग्न्य गण के अन्तर्गत आते हैं। काश्यपि गोत्र के अन्य नाम वैतहव्य या यास्क है। इसी प्रकार सिह्र गोत्र के गण का नाम आर्ष्टिषेण भी है। इन गोत्रों के लोगों ने अपने-अपने गोत्र के श्रेष्ठ पुरुषों के नाम पर पंच प्रवर तथा त्रिप्रवर की संख्या निर्धारित की, जिनका विवरण इस प्रकार है –

सं.गोत्रप्रवर
1.वत्स, वात्स्य, गालव, गांगेय, कोचहस्तिभृगु,च्यवन, आप्नवान, उर्व, जमदग्नि
2.काश्यपिभृगु, वैतहव्य, सावेतस
3.सिह्रभृगु,च्यवन, आप्नवान,आर्ष्टिषेण, अनूप
4.विदभृगु,च्यवन, आप्नवान, ऊर्व, बिद

भार्गव समाज में हमें इन बातों की जानकारी अवश्य होनी चाहिए –

1.वेदभृगु,च्यवन, आप्नवान, उर्व, जमदग्नि
2.शाखामाध्यन्दिन
3.उपवेदधनुर्वेद
4. श्रौत सूत्रकात्यायन
1.गृह्य सूत्रपारस्कर
2.धर्म सूत्रकात्यायन
3.कुलदेवतावरुण
4.निकास स्थानढोसी
1.वंशभार्गव
2.उपवंशच्यवन
3.पाददाहिना
4.शिखामुण्डित

भार्गव समाज में शिखा के सन्दर्भ में क्या विधान है ?

शिखा द्विजत्व का चिह्न है। पांच प्रकार की गाँठ वाली शिखाओं का विधान है -एक जटी, द्वि-जटी, त्रि-जटी, पंच जटी तथा धूर्जटी। ‘धूर्जटी’ केवल साधु, सन्यासी, ऋषि, मुनि, महर्षि ही धारण करते थे। शेष लोगों के लिए चार प्रकार की चोटियों का विधान है, लेकिन भार्गवों के लिए सिर मुंडा हुआ रखने का विधान है। गौमिल्य गृह्य सूत्र में कहा गया है –

दक्षिणकपर्दा वासिष्ठाः आत्रेयास्त्रिकपर्दिनः ।

आङ्गिरसः पञ्चचूडामुण्डा भृगवः शिखिनोडन्ये।।

इससे स्पष्ट है कि भार्गव लोग सिर मुंडा हुआ रखें।

अवश्य पढ़ें –  भार्गव समाज से सम्बंधित अन्य लेख

कुलदेवियाँ क्या हैं ? भार्गवों की कुल कितनी कुलदेवियाँ हैं ? उनका क्या महत्त्व है ?

गोत्र, गण, प्रवर, वेद, उपवेद, श्रौतसूत्र, पाद, शिखा आदि का विधान हो जाने के बाद हमारे पूर्वजों ने सोचा कि इन सबके बाद भी हमारी पूजा-अर्चना अधूरी है, हमारा पूजन एकांगी है, क्योंकि हम केवल कुलदेवता की पूजा करते हैं। शक्ति स्वरूपा देवी की उपासना के बिना हम अधूरे हैं। तब हमारे श्रेष्ठ पूर्वजों ने तप करके अपनी-अपनी शक्तियों को संचित किया और प्रत्येक ने उन्हें एक ‘कुलदेवी’ का रूप दिया। ये कुलदेवियाँ मंदिरों में देवी रूप में प्रतिष्ठित हुईं तथा घर में पूजा की पिटारी में कुलदेवता वरुण के साथ कुलदेवी (प्रतीकात्मक रूप में) रखी गई। ये तीन रूप धारण करके आई, जैसे ईंटा – ईंटा रौसा, नागन- नागन फुसन, नागन स्याहू। कुछ परिवारों ने घर में कोई बड़े न होने पर मातृ पक्ष या पत्नी पक्ष के गोत्र तथा कुलदेवी को अपना लिया है। हमें इसे रोकना होगा। यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि एक ही कुलदेवी अलग-अलग गोत्रों में क्यों मिलती है ? कुलदेवियाँ प्रवरों की शक्तियों का पुंजीभूत रूप हैं। चूँकि प्रवर कई गोत्रों में सामान्य रूप से उपस्थित हैं, अतः कुलदेवियाँ भी विभिन्न गोत्रों में सामान्य रूप से उपस्थित हैं। वैसे प्रत्येक गोत्र और कुलदेवी को लेकर एक कुल बनता है। इस प्रकार हम लोगों के कुल 55 कुल हैं। हमें अपनी कुलदेवी की अवश्य पूजा करनी चाहिए। इससे हमें धन,विद्या एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है । कुलदेवियों का विवरण इस प्रकार  है –

  1. आँचल – अंचल,अटला ,अचला  आदि कई नाम हैं । ये देवी पार्वती की अपररूप हैं ।
  2. आर्चट  – इनका अरचट नाम भी है । ये हमारे पूर्वज उशनस शुक्राचार्य की पुत्री ‘अरजा ‘ है ।
  3. अपरा  – ये पुराणोक्त अध्यात्म की देवी ‘विद्या ‘का ही रूप है ।
  4. अम्बा  – ये पार्वती  देवी ही है ।
  5.  ईंट  – ये लक्ष्मी का एक रूप है ।
  6. ईंट रौसा  -दुर्गा के साथ लक्ष्मी है ।
  7. ऊखल -इस नाम की देवी का विवरण नहीं मिलता है ।
  8. कनकस/कनक्स – ‘कनक’ अर्थात लक्ष्मी का ही दूसरा नाम है ।
  9. ककरा  -‘कर्कोट’ नामक  देवी दुर्गा का एक रूप है ।
  10. कुलाहल – यह दुर्गा देवी का एक नाम है ।
  11. कूकस/खूखस -इस नाम की देवी का पता नहीं चलता ।
  12. कोढ़ा – इनके बारे में विवरण अज्ञात है।
  13. चाकमुंडेरी / जाखमुंडेरी – यक्षिणी का एक स्वरुप
  14. चामुंडा/चावंडा – यह दुर्गा देवी का रूप है।
  15. जाखन/ जाखिनी – यह यक्षिणी का अपभ्रंश नाम है। यक्षिणी देवी का मंदिर वर्तमान में कांगड़ा में है। हस्तिनापुर तथा नारनौल के मंदिर विनष्ट हो गए। एक मंदिर लगभग 80 वर्ष पूर्व जयपुर में था।
  16. जीवन -ये महालक्ष्मी है।
  17. तांबा/ तामा – यह भी दुर्गा का एक रूप है।
  18. नागन/ नायन/ नागिन/ नागेश्वरी – शंकर जी का एक अवतार नागेश्वर था। उनकी पत्नी होने के कारण नागेश्वरी कहलाई। यह भी पार्वती का एक रुप है।
  19. नागन फूसन –  पार्वती जी के प्रतीक के साथ फूस रख कर पूजन करते हैं।
  20. नागन स्याह / नागर साहू – पार्वती जी के साथ साहू का पूजन होता है।
  21. नीमा – सरस्वती देवी का एक नाम है।
  22. बबूली / बम्बूली –  दुर्गा का एक नाम।
  23. बावनी / बामनी / बामन / ब्रह्माणी – यह सब ब्रह्मा की स्त्री ब्रह्माणी के नाम है।
  24. भैंसाचढ़ी – यह दुर्गा जी का एक नाम है।
  25. मंगोठी – मंगला देवी, दुर्गा जी का अपररूप।
  26. माहुल –  यह पार्वती देवी का प्रतीक है
  27. रौसा –  यह दुर्गा का रोषयुक्त रूप है
  28. शक्रा / शकरा / सकराय –  यह शाकंभरी देवी का एक रूप है। इन्होंने अपने भक्तों को कंदमूल तथा सब्जियां खाने को दी अतएव इनका नाम शाकंभरी पड़ा।
  29. शीतला –  मथुरा में शीतला देवी का मंदिर है इनका वाहन गदहा है।
  30. सनमत –  यह ललिता देवी का एक नाम है।
  31. सुरजन –  यह सूर्य की पत्नी छाया का नामान्तर है।
  32. सोहनशुक्ला / सोंडल / सोना – यह सब लक्ष्मी के नाम है।

ध्यातव्य है कि स्थानीय प्रभाव, उर्दू तथा फारसी लिपि के कारण अधिकांश नाम भ्रष्ट हो गए हैं। इनके यथासंभव वास्तविक रूप को ढूंढने का मैंने प्रयास किया है। आशा है भावी पीढ़ी इन के शुद्ध रूप को खोजने का प्रयास करेगी। इति

‘कुलदेवी ज्ञान चर्चा संगम’ से साभार, लेखक – डॉ. मनहर गोपाल भार्गव

Note – आप भी कुलदेवी, कुलदेवता, शक्ति महिमा, देवी महिमा, समाज विशेष आदि से सम्बंधित अपने लेख Mission Kuldevi में भेज सकते हैं – Submit Article 

7 thoughts on “अथातो भृगु वंश जिज्ञासा-भार्गव वंश, गोत्र व कुलदेवी परिचय- डॉ. मनहर गोपाल भार्गव”

  1. Dear sir ji aapse ek request hai Bhriguvanshi shandilya gotra ki kulddvi ka name kya hai kyon hai bhriguvanshi shandilya gotra ki kul Devi maata please batana mujhe jai maharishi bhrigu jai bhriguvanshi parashurama jai shukrachaeya jai chyavan

    Reply
  2. श्रीमान आप से वशिष्ठ गोत्र बट्टपुर मार्जनि मिश्र के बारे मे कुछ जानकारी हो तो बताये,आपका आभार

    Reply
  3. डाकौत समाज पर कोई लेख उत्पत्ति से संबंधित हो तो बताओ

    Reply
  4. Hamara gotra Bhrugu hai, aur kul daiwat Sulai Mata hai what Dhuliya Jilhe me Shindhakheda Talka me Shit Sulwade gaon me unka Mandhir hai , Please let me know is we have correct Kul daiwat

    Reply
  5. महोदय गुरुजी आपके पास donerya वंश की कुलदेवी का नामपता हो तो आप कृपा करके अवगत कराइए गोत्र भ्रुगू वंश है

    Reply

Leave a Reply

This site is protected by wp-copyrightpro.com