तैलंग ब्राह्मण समाज का परिचय व इतिहास तथा गोत्र व कुलदेवी | Tailang Brahmin Samaj in Hindi

Tailang Brahmin Samaj in Hindi: तैलंग ब्राह्मण समाज भारत में पाए जाने वाले कई ब्राह्मण समुदायों में से एक है। “तैलंग” शब्द संस्कृत शब्द “तैलंगा” से आया है जिसका अर्थ है “वह जो पवित्र धागा पहनता है”। तैलंग ब्राह्मणों को “कान्यकुब्ज ब्राह्मण” के रूप में भी जाना जाता है और ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में उनकी विद्वतापूर्ण खोज और योगदान के लिए जाना जाता है।

उत्पत्ति और इतिहास:

तैलंग ब्राह्मण भारत में आधुनिक उत्तर प्रदेश के कान्यकुब्ज क्षेत्र में अपने वंश का पता लगाते हैं। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, कान्यकुब्ज क्षेत्र महान ऋषि ऋषि कण्व का जन्मस्थान था, जिन्हें तैलंग ब्राह्मण समुदाय का पूर्वज माना जाता है। कहा जाता है कि समुदाय सदियों से कान्यकुब्ज से भारत के विभिन्न हिस्सों में चला गया है, और आज, वे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश जैसे विभिन्न राज्यों में पाए जाते हैं।

माना जाता है कि कान्यकुब्ज ब्राह्मण आधुनिक उत्तर प्रदेश के कान्यकुब्ज क्षेत्र से दक्षिणी क्षेत्रों सहित भारत के विभिन्न हिस्सों में चले गए, जहाँ उन्हें तैलंग ब्राह्मण के रूप में जाना जाता है। कान्यकुब्ज ब्राह्मण शब्द का प्रयोग आमतौर पर भारत के उत्तरी भागों में अधिक किया जाता है, जबकि तैलंग ब्राह्मण का उपयोग दक्षिणी क्षेत्रों में किया जाता है। हालाँकि, दोनों शब्द साझा सांस्कृतिक विरासत और परंपराओं वाले ब्राह्मणों के एक ही समुदाय को संदर्भित करते हैं।

तैलंग ब्राह्मण समुदाय ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों जैसे दर्शन, चिकित्सा, खगोल विज्ञान, ज्योतिष, गणित और साहित्य में उनके योगदान के लिए जाना जाता है। माना जाता है कि महान दार्शनिक और धर्मशास्त्री शंकराचार्य के एक तैलंग ब्राह्मण गुरु थे, और भारतीय इतिहास में कई अन्य प्रसिद्ध विद्वान तैलंग ब्राह्मण समुदाय से थे।

संस्कृति और परंपराएं:

तैलंग ब्राह्मणों के अपने रीति-रिवाज और परंपराएं हैं, जिनका वे बड़ी श्रद्धा के साथ पालन करते हैं। वे सख्त शाकाहारी हैं और “अहिंसा” या अहिंसा के सिद्धांतों का पालन करते हैं। समुदाय सीखने और शिक्षा के अपने प्यार के लिए जाना जाता है, और उनमें से कई ने ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है। उनके पास वैदिक अध्ययन की एक समृद्ध परंपरा है और “यज्ञ”, “हवन”, और “पूजा” जैसे विभिन्न अनुष्ठान और समारोह करते हैं।

विवाह और परिवार:

जब शादी और परिवार की बात आती है तो तैलंग ब्राह्मण सख्त नियमों का पालन करते हैं। वे एंडोगैमी का अभ्यास करते हैं और अपने ही समुदाय में शादी करते हैं। वे कई उप-जातियों में विभाजित हैं, जिनमें से प्रत्येक के अपने रीति-रिवाज और परंपराएं हैं। शादी समारोह एक विस्तृत मामला है और इसमें “मंगनी” या सगाई, “हल्दी” या हल्दी समारोह, और “कन्यादान” या दुल्हन को विदा करने जैसी विभिन्न रस्में शामिल हैं। दूल्हे के परिवार से शादी की प्रथा के तहत दुल्हन के परिवार को पर्याप्त दहेज देने की उम्मीद की जाती है।

धर्म:

तैलंग ब्राह्मण हिंदू धर्म के कट्टर अनुयायी हैं और भगवान शिव, भगवान विष्णु और देवी दुर्गा जैसे विभिन्न देवताओं की पूजा करते हैं। वे हिंदू धर्म के महान संतों और संतों का भी सम्मान करते हैं और उन्हें हिंदू शास्त्रों का गहरा ज्ञान है। समुदाय विभिन्न त्योहारों जैसे दिवाली, होली और नवरात्रि को बड़े उत्साह और उत्साह के साथ मनाता है।

ब्राह्मणोत्पत्तिमार्तण्ड में तैलंग ब्राह्मण समाज का विवरण इस प्रकार है –

““उत्कलाद्दक्षिणे तद्वद्द्राविडादुत्तरेऽपि च ।

पूर्वोत्तरायां ककुभौ यः कर्णाटकदेशतः ॥

महाराष्ट्रात्पूर्वभागे पश्चिमे च समुद्रतः ।

तैलङ्गदेशो विख्यातः प्रभूतबुधमंडितः॥”

 अर्थात् उत्कल के दक्षिण द्राविड़ के उत्तर कर्णाटक के पूर्वोत्तर व महाराष्ट्र के पूर्व समुद्र के पश्चिम अर्थात्-श्रीशैल से चोलास्थान के मध्य तक तैलङ्ग देश है, पुरानी कथा है कि, जैमुनि देश में एक धर्मदत्त राजा था, वह योगबल से नित्य प्रभात काशी स्नान को जाया करता था । रानी ने राजा से हठ की कि मैं भी आपके साथ नित्य काशी चला करूंगी, राजा ने यह बात स्वीकार की और रानी को भी प्रतिदिन ले जाने लगा, एक दिन रानी काशी में ही रजस्वला हुई और राजा ने तीन दिन काशी में रहना निश्चय किया, इसी अवसर में शत्रुओं ने राजा का नगर आ घेरा, राजा ने योगबल से सब वृत्तान्त जानकर ब्राह्मणों से कहा – न जाने से नगर शत्रुओं से पीड़ित होता है, जाने से पत्नी को यहाँ छोड़ना पड़ता है, क्या करूं? तब ब्राह्मणों ने राजा को उस अवस्था में पत्नी सहित स्वदेश गमन की व्यवस्था दी, इस पर राजा प्रसन्न हुआ और चलते समय कह गया कि कभी समय पड़ने पर हमारे यहाँ आना, राजा ने घर जाकर की जीता, धर्मराज्य करने लगे, एक समय काशी क्षेत्र में अकाल पड़ गया तब बहुत से ब्राह्मण राजा का वचन स्मरण कर जैमुनि नगर में गये, राजा ने उनका बड़ा सम्मान किया और उनके स्रान, भोजन, स्थानादि का सब प्रबन्ध कर दिया। उस समय उस नगर के दक्षिणी ब्राह्मणों ने इन उत्तरवासियों का सम्मान देख इनसे द्वेषभाव माना, और जहाँ-तहाँ शास्त्रार्थ करना आरंभ कर दिया। राजा सामने भी बड़ाई छोटाई पर शास्त्रार्थ आरंभ किया, तब राजा ने एक घड़े में सर्प बन्द करके कहा जो कोई सत्य बता देगा, इसमें क्या है वही बड़ा समझा जायेगा, उन जैमुनि ब्राह्मणों ने कहा हमारी सम्मति से इसमें सर्प, तब उत्तरवासी विचारने लगे हम क्या कहैं तब उसी समय ब्रह्मचारी के वेश में ब्रह्मण्यदेव प्रगट हुए और उन उत्तरदेशी ब्राह्मणों से कहा मैं विप्रबिनोदी वंश में उत्पन्न हूं और तुम्हारी ओर से मैं इस घट के भीतर का वृत्तान्त कहे देता हूं, तुम किसी बात की चिन्ता मत करो, ब्राह्मणों ने उस बालक में चमत्कार देख कर यह बात स्वीकार करली, और बालक ने राजा के समीप जाकर कहा कि मैं उत्तर देशीय ब्राह्मणों की अनुमति से कहता हूँ इस घड़े के भीतर सुवर्ण की श्रीकृष्णजी की मूर्ति है, राजा ने जो हँसकर पात्र खोला तो उसमें निश्चय ही सुवर्ण की मूर्ति दीखी, इस पर जैमुनि ब्राह्मण पराजित होकर चले गये, और राजा ने बड़े सम्मान से उत्तरवासियों को रखा और ये उत्तरीय तैलंग कहाये । इनमें छः भेद हैं । उसका इतिहास इस प्रकार है कि तैलंग देश में एलेश्वरोपाध्याय नामक एक ब्राह्मण था उसकी एक कन्या अत्यन्त सुंदरी थी, एक समय कल्याणपंत नामक स्वर्णकार दूर देश का रहनेवाला इनके पास आकर ब्राह्मण बनकर विद्या पढ़ने लगा, उपाध्याय ने, उसकी सुमति विचार कर उसे अपनी कन्या दे दी और कन्या के प्यार के कारण उसे अपने घर में रख लिया, कुछ समय बीतने पर कल्याणपन्त के पुत्र हुआ, जब बालक सोलह वर्ष का हुआ तब मंगलसूत्र के समय सुवर्ण की परीक्षा करने के समय यह बात जानी गई कि कल्याणपन्त सुनार है, उपाध्याय को यह दुःख हुआ और उन तीनों को अलग रखकर विद्वानों को बुलाकर सभा कराई और शद्धि का उपाय पूछा तब पंडितों ने कहा हम सब में आप बड़े हो, आप ही इसका निर्णय करो, यह सुनकर उपाध्याय बोले कि थोड़े दिनों का संसर्ग होता तो प्रायश्चित्त लगता, यहाँ तो चालीस वर्ष संसर्ग को हो गये । इस कारण से इस विषय में जाति विभाग करता हूं, जो ब्राह्मण अपने संसर्ग के नहीं हैं, परदेश के हैं वे वेल्लाटि अथवा वेलनाड़ी नाम से प्रसिद्ध होंगे (वेल-बाहरी भाग नाडू- देश अर्थात् देश से बाहर के) और उनमें भी जो पहले स्वग्राम दग्ध होने से यहाँ आकर रहे वे ‘वेगिनाडू’ (वेगी-दग्ध, नाडू-देश) कहावेंगे और जो थोड़े समय से स्वदेशाधिपति के मरण होने और देश में अनाचार आदि होने से यहाँ आकर रहे हैं वह ‘मुर्किनाडू’ नाम से विख्यात होंगे (मुर्कि-मरण, नाडू- देशाधिपति अर्थात्-देशाधिपति के मरण दुःख से जो देश को छोड़करः यहाँ आरहे वे मुर्किनाडू कहाये) फिर तीन देशों से आये द्विजों से ऋग्वेद पाठी ब्राह्मणों ने कहा तुम ‘कर्णकर्मा‘ अर्थात् (कर्मकरने में कुशल) नाम से विख्यात होंगे, अपने संसर्गी जो हैं वे तिलगाणि नामक जाति से प्रसिद्ध होंगे और छठी कासलनाडू नामक जाति प्रसिद्ध हो, इस प्रकार जाति के भेद स्थान किये; इनमें ऋग्वेदी और आपस्तम्बी विशेष हैं। याज्ञवल्क्य सम्बन्धी वाजसनेयी न्यून हैं, इनका विवाह सम्बन्ध निज-निज वर्णों में होता है अन्यत्र नहीं । इस प्रकार उपाध्याय ने छः भेद स्थापन किये, पीछे तैलंग ब्राह्मणों में वाजसनेय शाखा वालों में अनुमकुढलु और कोतकुडल यह दो भेद हुए, इन ब्राह्मणों को अखलु भी कहते हैं, दुबलु अर्यलु ऐसे दो भेद हैं अर्थात् यह इनके दूसरे नाम हैं और आर्यों का उपदुरीवास नाम से व्यवहार है, काकुल पाटि वारु, बढ़माह इस प्रकार के और भेद हैं, इनमें नियोगी ब्राह्मणों के चार भेद हैं-

  1. आसवेल नियोगी
  2. पाकनाटि नियोगी
  3. पेसलवाई नियोगी
  4. नन्दवर्यु नियोगी

इनके विवाह सम्बन्ध भी स्ववर्ग में होते हैं। कहीं-कहीं पाकनाटि नियोगी और आरुवेल नियोगी इनका परस्पर सम्बन्ध होता है, तैलंग ब्राह्मणों के यजमान वेरिवार शूद्र जाति, नायडशूद्र, मुद्गलादिशूद्र और वैश्यनामधारक कोमटी जातिवाले हैं ।

इसी जाति में गोस्वामी वल्लभाचार्यजी का प्रादुर्भाव हुआ है । वेल्लारि जाति तैलंग ब्राह्मण लक्ष्मणभट्ट हुए । इनके पिता गणपति भट्ट और पितामह गंगाधर भट्ट ने अनेक सोमयज्ञ किये थे उसी पुण्य के प्रताप से करखंव ग्राम निवासी लक्ष्मणभट्ट की पत्नी लल्लमागा गर्भवती हुई जब सातवां महीना प्रारंभ हुआ तब लक्ष्मणभट्ट जी यज्ञ पूर्ति में ब्राह्मण भोजन कराने की इच्छा से बन्धुवर्गों के सहित काशी को चले और हनुमान घाटपर एक स्थान में डेरा किया और ब्राह्मण भोजन कराया। पीछे काशी में यह समाचार फैला कि कोई यवन काशी पर आक्रमण करेगा। यह समाचार सुन यह अपने देश को लौटे और अठारवीं मंजिल में जब चम्पारण्य पहुँचे तब वहाँ इनकी पत्नी के नौमास से पूर्वही गर्भ का प्रसव हुआ। उस समय संवत् 1535 वैशाख कृष्ण एकादशी रविवार था, पिता ने बड़ा आनंद मनाया। यह चाम्परण्य नागपुर के आगे रायपुर नामक ग्राम से 7 कोस पूर्व है, अब इसको चम्पाझर कहते हैं वहाँ से इनको लेकर लक्ष्मण भट्ट काशी आये और इन्होंने सब विद्या माध्वानंदतीर्थ के पास पढ़ी और महाप्रभुजी ने अनेकों को परास्त किया और पंढरपुर के राजा को अपना सेवक करके पृथिवी की परिक्रमा की, मधुमंगल ब्राह्मण की कन्या महालक्ष्मी से विवाह किया, संवत् 1569 भाद्रकृष्ण दशमी को इनके पुत्र जन्मा, जिनका गोपीनाथ नाम हुआ यह थोड़े काल ही भूमि पर विराजे तब महाप्रभु चरणाद्रि में चले आये । यहाँ इनके संवत् 1572 पौष कृष्ण नवमी शुक्रवार को विट्ठलनाथ का जन्म हुआ, इनके सात पुत्र हुए, उनमें बड़े पुत्र श्री गिरिधरजी संवत् 1597 कार्तिक सुदी 12 को जन्मे, श्री गुसाईं जी ने इनको आचार्य गद्दी और गोवर्द्धननाथ की मुख्य सेवा सौंपी, दायभाग में मथुरेशजी का स्वरूप दिया, दूसरे पुत्र गोविदराय जी संवत् 1600 मार्गशीर्ष कृष्णाष्टमी को जन्मे, दायभाग में श्रीविठ्ठलेशराय का स्वरूप मिला, तीसरे पुत्र श्रीबालकृष्णजी का जन्म संवत् 1606 आश्विनकृष्ण त्रयोदशी को हुआ, इनको श्रीद्वारिकानाथ जी के स्वरूप की सेवा मिली, चतुर्थ पुत्र श्रीगोकुलनाथ जी का जन्म संवत् 1608 मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी को हुआ, इनको सेवा के लिये श्रीगोकुलनाथ जी का स्वरूप मिला, पंचम पुत्र रघुनाथ जी का जन्म संवत् 1611 कार्तिकसुदी 12 को हुआ, इनको सेवा के निमित्त श्रीगोकुलचन्द्रमाजी का स्वरूप मिला, छठे पुत्र यदुनाथ जी का जन्म संवत् 1613 चैत्रसुदी 6 को हुआ, जब दायभाग में इनको श्री बालकृष्ण जी का स्वरूप देने लगे तो छोटा स्वरूप जान के नहीं लिया, इनके वंश में बहुत समय के पीछे काशीस्थ श्रीगिरधर जी महाराज ने श्रीमुकुन्दरायजी का स्वरूप लिया है, इस प्रकार अरेलग्राम में छः पुत्रों का जन्म हुआ; पीछे श्रीमद्गोस्वामी विट्ठलनाथ जी उस ग्राम से उठकर श्रीगोकुल में आकर रहने लगे और श्रीनाथ जी की सेवा का बहुत बड़ा विस्तार किया जिससे इनका यश समस्त देश में व्याप गया । वीरबल, टोडरमल आदि ने शिप्यता स्वीकार की, दूसरी भार्या में सप्तम पुत्र श्रीघनश्यामजी संवत् 1623 मार्गशीर्षकृष्ण 13 को जन्मे, इनको दायभाग में मदन मोहन जी का स्वरूप दिया, इस कारण वल्लभसंप्रदाय में सात गद्दी हैं, इन्होंने सुर्वाधिनी आदि कई ग्रन्थ बनाये और वे श्रीविदासजी को सौंप काशीजी में आये और संन्यास ग्रहण कर 40 दिनपर्यन्त निराहार रहकर भगवद्भाव को पधारे । लक्ष्मणभट्ट के साथ में जो ब्राह्मण थे उनमें कितने एक कर्णाटक द्रविड़ और तैलंग थे । गोकुल में भी ब्राह्मणों का समाज बहुत रहा, भरद्वाजगोत्री श्रीविठ्ठलनाथ जी मुख्य हुए, पीछे विट्ठलनाथजी के वंशस्थ पुरुषों ने मेवाड़ में श्रीएकलिंगेश्वर क्षेत्र के अन्तर्गत सिहार वगरी में श्रीनाथ जी की स्थापना करके निवास किया, वहाँ ब्राह्मणों के उपनाम कहे हैं । रेहि, पंचनदी, लदार्व, सिन्हरी, कांठोड्य, वोटी, श्रीमच्चक्रवर्ती, नरी, भदरसा, कञ्चा, शिघोरी, नडी और दिल्ली के बादशाह ने जो ग्राम प्रसन्न होकर ब्राह्मणों को दिये उन ग्रामों के नाम से उनके नाम विख्यात हुए, यथा गिट्ठा लंबुक, जोगी, याहि, तिघर आदि कर्णाटक द्रविड़ जो ब्राह्मण वहाँ जाकर रहे वे भी उन-उन नामों से विख्यात हुए, अपने-अपने वर्ग में इनका भी कन्या विवाह सम्बन्ध होता है, वे कर्णाटक, द्रविड़, गोकुल, मथुरा, वृन्दावन, व्रज, कामवन, आमेर, मालवा, बूंदी, रतलाम, अनूपशहर, काशी, प्रयाग, वीवीपुरा, बुन्देलखण्ड आदि नगरों में रहे और उन-उन नामों से विख्यात हुए, यह तैलंग ब्राह्मणों के अन्तर्गत भइ ब्राह्मणों का वंश कहा।”

गोत्र व कुलदेवी 

यदि आप तैलंग ब्राह्मण समाज से हैं तो कृपया Comment Box में अपना गोत्र व कुलदेवी का नाम लिखें। हो सके तो कुलदेवी के मंदिर के स्थान के बारे में भी जरूर बताएं। 

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