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श्री सालासर बालाजी कथा, महिमा व मन्दिर का इतिहास

Salasar Balaji Temple Rajasthan History and Katha in Hindi : राजस्थान के चूरू जिले की सुजानगढ़ तहसील के सालासर नामक स्थान पर लाखों लोगों की आस्था का केन्द्र हनुमानजी का प्रसिद्ध मन्दिर है। गांव के नाम पर इन्हें सालासर बालाजी कहा जाता है। इस मन्दिर की स्थापना रूल्याणी ग्राम के संत श्री मोहनदासजी ने की थी।

श्री सालासर बालाजी की महिमा व मन्दिर का इतिहास (Salasar Balaji Temple History)

मेलों की नगरी सालासरधाम

राजस्थान का सालासर धाम मेलों की नगरी है। यहाँ सिद्धपीठ बलाजीमंदिर में आने वाले श्रद्धालुओं का प्रत्येक शनिवार, मंगलवार व पूर्णिमा को मेला लग जाता है। चैत्र, आश्विन और भाद्रपद महीनों में शुक्लपक्ष की चतुर्दशी व पूर्णिमा को तो विराट मेले लगते हैं।

सालासर के हनुमानजी श्रद्धालुजनों में ‘ श्रीबालाजी ‘ नाम से लोकप्रिय है। हनुमान जयन्ती आदि के मेलों के अवसर पर विशेष दर्शन हेतु देश के कोने-कोने से श्रद्धालु भक्त श्रीसालासर-बालाजीधाम की ओर चल पड़ते हैं। कोई पैदल चलता है, कोई पेट के बल सरकते हुए आगे बढ़ता है तो कोई कदम कदम पर साष्टांग दण्डवत प्रणाम करते हुए। कोई ऊँटगाड़ी पर, कोई रेलगाड़ी पर तो कोई बस, जीप, कार आदि द्वारा प्रेम की डोर में बँधे खिंचे चले आते हैं। यों लगता है मानो सालासर एक समुद्र है जिसमें भक्तों की टोलियाँ नदियों के समान प्रविष्ट हो रही हैं। चारों ओर लहराता जनसमूह, जय बालाजी के गगनभेदी जयकारे, मन्दिर में बजते नगाड़ों और घण्टा-घड़ियालों की समवेत ध्वनि, पंक्तिबद्ध खड़े दर्शनार्थियों की उत्कण्ठा और उत्साह इस धाम की विलक्षणता के सूचक हैं।

श्री सालासर बालाजी का स्वरूप

बालाजी के दर्शन की प्रतीक्षा में लड्डू, पेड़ा, बताशा, मखाना, मिश्री, मेवा, ध्वजा-नारियल आदि सामग्री हाथ में लिए लम्बी घुमावदार कतार में खड़े दर्शनार्थी बारी आने पर ज्यों ही मन्दिर में प्रवेश करते हैं, बालाजी की भव्य प्रतिमा का दर्शन कर भावमुग्ध हो जाते हैं। अद्भुत स्वरूप है बालाजी का जो अन्यत्र अलभ्य है। सिन्दूर से पुती मूलप्रतिमा पर वैष्णव सन्त की आकृति बनी है। माथे पर ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक, झुकावदार लम्बी भौंहें, घनी दाढ़ी-मूंछें, कानों में कुण्डल, एक हाथ में गदा और दूसरी में ध्वजा और दर्शकों के हृदय की गहराई तक झाँकती सुन्दर आँखें ; यह है बालाजी का विलक्षण स्वरूप। प्रतिमा का मूलरूप तो कुछ और ही था। उसमें श्रीराम और लक्ष्मण हनुमानजी के कन्धों पर विराजमान थे। बालाजी का यह वर्तमान रूप तो सन्तशिरोमणि मोहनदासजी की देन है।

बालाजी ने मोहनदासजी को सर्वप्रथम दर्शन एक वैष्णव सन्त के रूप में ही दिए थे। बालाजी का स्वभाव ही ऐसा है, सर्वप्रथम दर्शन वेश बदलकर ही देते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी को कोढ़ी के वेश में उनके दर्शन मिले थे। भगवान श्रीराम से मिले तो विप्रवेश में। मोहनदासजी के हृदय में प्रथम दर्शन का प्रभाव कुछ ऐसा पड़ा कि वह उनके मन-मस्तिष्क में स्थायी रूप से अंकित हो गया। उन्हें ध्यानावस्था में भी उसी रूप में दर्शन होते। बार- बार देखे गये उस रूप में इतनी अनन्यनिष्ठा हो गयी कि उन्हें दूसरा कोई रूप स्वीकार ही नहीं था। बालाजी तो भक्त की मनचाही करते हैं। उनकी अपनी कोई इच्छा होती ही कहाँ है, सो बालाजी ने भी भक्त की पसन्द का रूप धारण कर लिया। सालासर में यही उनका स्थायी रूप बन गया है।

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सालासर बालाजी के दर्शन

श्री सालासर बालाजी का मुख्य भोग

बालाजी भी कम कौतुकी नहीं हैं। वे बोले- जब रूप प्रथम दर्शन वाला है तो भोग भी प्रथम दर्शन वाला ही होना चाहिए। बचपन में मोहनदासजी जब रुल्याणी के बीड़ (गोचरभूमि) में गायें चरा रहे थे तब बालाजी ने उन्हें सर्वप्रथम दर्शन एक वैष्णव सन्त के रूप में दिए थे। उस समय मोहनदासजी ने उन्हें मोठ-बाजरे की खिचड़ी भोग के लिए अर्पण की थी, जो माँ ने दोपहर के भोजन के लिए उनके साथ भेजी थी। सन्तवेशधारी बालाजी ने बड़े चाव से उस खिचड़ी को पाया था। प्रेम से अर्पित उस खिचड़ी का स्वाद वे भूले नहीं थे। बालाजी प्रेम के ही तो भूखे हैं। केवल प्रेम से ही भक्ति के क्षेत्र में प्रवेश मिलता है। प्रेम का स्पन्दन तरंग की भांति आराध्य के हृदय को स्पर्श तथा प्रभावित करता है। मोहनदासजी द्वारा अर्पित मोठ-बाजरे की वह खिचड़ी सालासर के बालाजी का स्थायी भोग बन गयी। वह परम्परा आज भी कायम है। मेवा-मिष्ठान्न के साथ बालाजी की तृप्ति के लिए मोठ-बाजरे की खिचड़ी का विशेष भोग जरूर लगाया जाता है। भक्त और इष्टदेव का यह भावनात्मक संबंध ही सालासर के बालाजीधाम की विलक्षण विशेषता है।

सालासर बालाजी मन्दिर धाम के कुछ चित्र Salasar Balaji Temple Photos :-

श्री सालासर बालाजी मन्दिर का निर्माण

सालासर के बालाजीमन्दिर का निर्माण मोहनदासजी द्वारा संवत 1815 में कराया गया था। मन्दिर के परिसर में मौजूद उनके स्मृतिचिह्न उनकी श्रद्धा, भक्ति, सेवा और समर्पण की मौनकथा कहते हैं। भक्तों ने उनकी स्मृति को संजोकर रखा है।

मोहनदासजी का धूणा व कुटिया

मन्दिर के पास ही मोहनदासजी का धूणा है जहाँ बैठकर वे ध्यान-साधना और तपस्या किया करते थे। यह अभी तक अखण्डरूप से प्रज्वलित है। मन्दिर का अखण्डदीप भी सर्वप्रथम उनके द्वारा ही प्रज्वलित किया गया था। धूणे के पास ही उनकी कुटिया थी, जिसे अब पक्का कमरा बना दिया गया है। उसमें उनकी प्रतिमा भी प्रतिष्ठापित कर दी गई है। सालासर आने वाला भक्त बालाजी के दर्शन के बाद कुटिया में मोहनदासजी के दर्शन कर धूणे की विभूति साथ जरूर ले जाता है।

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मोहनदासजी के धूणे के समीप श्रद्धालु

मोहनदासजी का समाधिस्थल

धूणे से थोड़ी दूर सामने की दिशा में मोहनदासजी का समाधिस्थल है जहाँ उन्होंने जीवित समाधि ली थी। समाधिस्थल पर मोहनदासजी के चरणचिह्न (पगल्या) हैं। पास ही छतरी में उनकी बहन कान्हीबाई के चरणचिह्न भी स्थापित हैं। मोहनदासजी और कान्हीबाई के ये चरणचिह्न भाई-बहन के उस दिव्य शाश्वत प्रेम के प्रतीक हैं, जिसने एक ढाणी (छोटे ग्राम) सालासर को ‘सिद्धपीठ सालासरधाम’ के रूप में विकसित कर दिया। भाई-बहन के प्रेम ने ही तो रक्षाबन्धन जैसे पावन पर्व को जन्म दिया है। प्रेम के इस रक्षाबन्धन में बंधे हुए ही मोहनदासजी रूल्याणी की अपनी सम्पत्ति त्याग कर विधवा बहन और भानजे के संरक्षण के लिए सालासर आ गये। विरक्त सन्त होने के बाद भी वे उनकी देखरेख को अपनी अध्यात्म-साधना का अभिन्न अंग बनाये रहे। सालासर में गूंजने वाला प्रत्येक जयकारा उनके सेवा-संकल्प के वचन की ही प्रतिध्वनि है, जो उन्होंने रूल्याणी से सालासर प्रस्थान करते समय लिया था। उस वचन को निभाने के लिए मोहनदासजी अपना सर्वस्व त्यागकर सालासर आ बसे थे। सालासर उनकी कल्पना का सेवतीर्थ है, जहाँ सुयोग्य उत्तराधिकारियों ने विविध सेवाप्रकल्पों से उनके सेवाव्रत को जारी रखा है। खारे जल वाले इस गाँव में तालाब खुदवा कर सेवाप्रकल्पों की परम्परा का प्रवर्तन तो उन्होंने स्वयं ही कर दिया था।

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सालासर बालाजी मन्दिर में बाबा मोहनदासजी की समाधि
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सालासर बालाजी मन्दिर में समाधि में बाबा मोहनदासजी व कान्ही दादी के चरणचिह्न ( पगल्या )

मोहनदासजी का पैतृक गाँव रुल्याणी व चूनाबाबा

मोहनदासजी का पैतृक गाँव रुल्याणी सालासर से मात्र 16 मील की दूरी पर स्थित है। सालासर-सीकर सड़क मार्ग पर काछवा गाँव है। वहाँ से रूल्याणी के लिए सड़क जाती है। काछवा से रूल्याणी की दूरी मात्र 6 किलोमीटर है। चूनाबाबा द्वारा जीवित समाधि लेने के बाद इसे चूनाबाबा की रुल्याणी भी कहा जाने लगा है। (सिद्धसन्त चूनाबाबा ने सम्वत 1967 में रुल्याणीनिवासी चोखारामजी और राधाबाई के पुत्र रूप में जन्म लिया। वे बचपन से ही भगवान के भक्त व विरक्त थे। पुत्र सन्यासी न हो जाये, इस आशंका से पिता ने छोटी आयु में उनका विवाह कर दिया, पर वे घर-गृहस्थी से विमुख रहकर अध्यात्मसाधना में ही लीन रहे। उनके सत्संग से उनकी पत्नी धापूदेवी को भी लौकिक सुखों से वैराग्य हो गया। चूनाबाबा 30 वर्ष की आयु में सन्त आदूरामजी से दीक्षा लेकर सेवा और भक्ति से जीवन बिताने लगे। उन्होंने 68 वर्ष की आयु में सम्वत 2035 में आश्विन शुक्ला द्वितीया सोमवार के दिन जीवित समाधि ली। इस तिथि को प्रतिवर्ष समाधिस्थल पर विराट मेला लगता है।)

रुल्याणी के पास ही सेवदड़ा गाँव है। मोहनदासजी के जन्म के समय सेवदड़ा में कासलीनरेश राव जगतसिंह के पुत्र राव पहाड़सिंह का शासन था। रुल्याणी गाँव उनकी जागीर में था। राव पहाड़सिंह जयपुरनरेश सवाई जयसिंह के मनसबदार थे। मोहनदासजी के पिताजी पंडित लच्छीरामजी पाटोदिया का सेवदड़ा के राजपरिवार में अच्छा सम्मान था।

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