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श्री सालासर बालाजी कथा, महिमा व मन्दिर का इतिहास

श्री सालासर बालाजी की कथा

आत्मनिवेदन

सन्तशिरोमणि मोहनदासजी की हनुमद्भक्ति और उनके द्वारा सालासर में श्रीबालाजी मन्दिर की स्थापना की कथावस्तु पर आधारित पुस्तक ‘श्री सालासर बालाजी कथा ‘ की रचना कर इसे आप तक सुलभ पठनीय बनाने के लिए इसे यहाँ अपने ब्लॉग पर प्रस्तुत कर रहा हूँ। सन्त-शिरोमणि मोहनदासजी भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि महापुरुष थे। उनके व्यक्तित्व के अनेक पक्ष हैं। और प्रत्येक पक्ष अपने आप में अनूठा है। वे भगवान श्रीराम और हनुमानजी के अनन्य भक्त थे। भक्ति के संस्कार उनमें जन्मजात थे, जो उत्तरोतर विकसित होते गये। सेवा, परदुःखकातरता, हृदय की कोमलता, विद्वता, कवित्व आदि गुण उनके बहु-आयामी व्यक्तित्व को उजागर करते हैं। यद्यपि कुछ उत्साही व्यक्तियों ने उनके जीवनचरित को प्रकाश में लाने का प्रयास किया किन्तु व्यापक अनुसन्धान के अभाव में ये प्रयास समग्र रूप से सफल नहीं हो सके।

इतिहास का अध्येता होने के कारण यह शोधकार्य मेरे लिए स्वाभाविक रुचि का विषय है। श्रीमोहनदासजी के व्यक्तित्व और कृतित्व से सम्बंधित तथ्यों का अन्वेषण व समीक्षा कर उन्हें कथा रूप में निबद्ध कर प्रस्तुत करने का दायित्व मुझे दिया गया तो मैंने इसे अपना अहोभाग्य माना। अब यह कथा भेंट के रूप में आपको अर्पित है।

यह पुस्तक ऐतिहासिक गद्य-काव्य है। इतिहास का प्रयोजन घटनाओं को यथावत प्रस्तुत करना होता है। काव्य में घटनाओं की प्रस्तुति इस प्रकार होती है कि उसे पढ़ने-सुनने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों के फल की प्राप्ति हो जाती है।

यह कथा दो भागों प्रथम चरित्र और उत्तर चरित्र में विभक्त है। प्रथम चरित्र में कथानायक के सालासर-गमन से पूर्व का जीवन चरित्र वर्णित है और उत्तर चरित्र में सालासर जाने के बाद का। उनके जीवन की घटनाओं  संकलन में जिन महानुभावों का सहयोग मिला, उनके प्रति मैं आभार व्यक्त करता हूँ। इस कथा के सम्बन्ध में आपकी सम्मति व सुझाव आप कमेंट बॉक्स में दे सकते हैं। आपके विचार प्रेरणास्रोत सिद्ध होंगे।

विनीत :- संजय शर्मा

प्रथम चरित्र

                    रुल्याणीनिवासी पं. लच्छीरामजी पाटोदिया रामभक्त दाधीच ब्राह्मण थे। भक्ति के संस्कार उन्हें वंशपरम्परा से प्राप्त हुए थे। उनके दादा पं. सदारामजी रैवासा की अग्रपीठ के संस्थापक श्री अग्रदेवाचार्यजी के कृपापात्र और सेवानिष्ठ अनुयायी थे। अग्रपीठ प्रारम्भ से ही रामानन्द सम्प्रदाय का उत्तरी भारत का प्रमुख केन्द्र रहा है। जगद्गुरु आचार्य रामानन्द के शिष्य अनन्तानन्द के दो प्रमुख शिष्य थे – नरहरिदास और कृष्णदास पयहारी। नरहरिदास के शिष्य गोस्वामी तुलसीदास तथा कृष्णदास पयहारी के शिष्य अग्रदास थे। गुरु की आज्ञा से अग्रदास ने रैवासा में अग्रपीठ की स्थापना की। तब से अग्रदास का नाम आचार्य अग्रदेव हुआ। आचार्य अग्रदेव हनुमानजी के परमभक्त थे। जब वे रैवासा में कठोर तपस्या कर रहे थे, तब माता जानकीजी ने उन्हें दर्शन देकर उपदेश दिया था कि भक्ति के आचार्य रामदूत हनुमानजी हैं। उनकी आराधना से भगवत्कृपा की प्राप्ति शीघ्रता और सुगमता से होती है। आचार्य अग्रदेव ने रैवासा में उस स्थान पर एक वाटिका लगायी जहाँ उन्हें माता जानकीजी के दर्शन हुए थे। उन्होंने जानकीनाथजी तथा हनुमानजी के मन्दिरों का निर्माण कराया। वे नगर-नगर, गाँव-गाँव, ढाणी-ढाणी भ्रमण करते हुए परमपिता भगवान श्रीराम और रामदूत हनुमान की भक्ति का उपदेश दिया करते थे।

एक बार पं. सदारामजी डीडवाना जागीर के दयालपुरा गाँव में एक सेठजी के घर नवरात्र का अनुष्ठान कर रहे थे। उसी समय स्वामी अग्रदेवाचार्यजी सन्तमण्डली के साथ भक्तिप्रचार करते हुए दयालपुरा पहुँचे। पं. सदारामजी स्वामीजी के तपोबल व भक्तिसाधना की महिमा से परिचित थे। उन्होंने अपने यजमान सेठजी से कहा कि स्वामीजी महान तपस्वी और भक्त हैं। वे सकलकामनाहीन हैं। भगवान की प्रसन्नता और जनता के कल्याण के लिए भगवान का गुणगान करते रहना ही उनके जीवन का लक्ष्य है। वे जहाँ भी जाते हैं, वहीं पाँच ईंटें आड़ी-तिरछी रखकर हनुमानजी की स्थापना कर देते हैं।  बाद में वहां ग्रामीण रघुनाथजी का मन्दिर या हनुमानजी का बुंगला (छोटा मन्दिर) बना देते हैं। इस प्रकार इनकी भक्तियात्रा में जहाँ-जहाँ विश्राम हुआ वहीं रामदूत हनुमानजी के मन्दिर बन गये हैं। नगरों और बड़े गाँवों में रघुनाथजी के मन्दिर भी बन गये हैं। हमारे सौभाग्य से उनकी भक्ति-यात्रा का विश्राम दयालपुरा में हुआ है। ऐसे महान सन्त का दर्शन और उनके उपदेश सुनने का अवसर बड़े भाग्य से मिलता है।

यह सुनकर सेठजी अत्यन्त प्रसन्न हुए। वे श्रद्धालु तथा धर्मनिष्ठ थे। उन्होंने सन्तों के आवास-भोजन तथा सत्संग की बड़ी उत्तम व्यवस्था कर दी। स्वामीजी का जैसे ही दयालपुरा में पदार्पण हुआ, सेठजी और पण्डितजी के साथ ग्रामीण उनकी अगवानी के लिए तैयार मिले। विश्राम हेतु सम्पूर्ण व्यवस्था तैयार थी । भोजन व विश्राम के बाद भजन-कीर्तन व प्रवचन की तैयारी हुई। स्वामीजी ने अपने शिष्य नाभादास को पांच ईंटें लाने की आज्ञा दी। सेठजी ने हवेली से पांच ईंटें मंगवाकर नाभादासजी को दीं। स्वामीजी ने एक जाँटी (खेजड़ी) के पेड़ के नीचे दो ईंटें जमीन पर रखकर उन पर दो ईंटें खड़ी कर उनके सिरे आपस में मिला दिए। पाँचवीं ईंट को पीछे रखकर मन्दिर का प्रतीकात्मक रूप बना दिया। एक छोटे से तिकोने पत्थर पर सिन्दूर लगाकर उस मन्दिर में विराजमान कर दिया। मन्दिर के सामने हनुमानचालीसा के 108 पाठ सामूहिक रूप से किये गये तथा प्रसाद का वितरण किया गया।

अगले दिन प्रवचन का कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। पं. सदारामजी नवरात्रपूजन पूर्ण हो जाने पर भी प्रवचन व भजन-कीर्तन आनन्द लेने के लिए दयालपुरा ही रुके हुए थे। दयालपुरा गाँव भक्तिरस में सराबोर हो रहा था। शाहपुरा, रुल्याणी, मावा, ललासरी आदि आस-पास के गाँवों से भी ग्रामवासी सत्संग में आ रहे थे। स्वामीजी उस समय श्रीरामप्रपत्ति नामक ग्रन्थ की रचना कर रहे थे इसलिए उनके प्रवचन का विषय भी प्रपत्ति (शरणागति) ही था। भगवान श्रीराम की शरणागति की महिमा बताते हुए वे बोले कि भगवान श्रीराम साक्षात् परं ब्रह्म हैं। योगी ध्यानसाधना द्वारा उनमें रमण करते हैं, इसलिए परंब्रह्म को राम कहा जाता है। रामतापनीयोपनिषद् का वचन है –

रमन्ते योगिनोऽनन्ते नित्यानन्दे चिदात्मनि।

इति  रामपदेनासौ     परं     ब्रह्माभिधीयते ।।

सीता, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न उस परंब्रह्म की शक्तियों के विविध व्यक्त रूप हैं। ॐकार विविध शक्तियों से युक्त परंब्रह्म श्रीराम वाचक है। ॐ के पाँच अवयव हैं – अ, उ, म, अर्धमात्रा तथा नादबिन्दु।  ये क्रमशः लक्ष्मण, शत्रुघ्न, भरत, राम, तथा सीता के वाचक हैं। इस प्रकार ॐ से राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न और सीता रूप श्रीरामपञ्चायतन की अभिव्यक्ति होती है।

                 उस परब्रह्म राम की शरणागति को ही प्रपत्ति कहते हैं। जब जीव अपने-आपको सब प्रकार से अशक्त और निरुपाय समझकर भगवान् को ही उपायरूप से वरण करता है तो जीव की इस प्रवर्ति को प्रपत्ति कहा जाता है। इसमें उपेय ही उपाय है। यही सब साधनों का सार है। इसके 6 प्रकार हैं –

  1. अनुकूलता का संकल्प– जिन कार्यों से प्रभु प्रसन्न हों, उन्हें अवश्य करना।
  2. प्रतिकूलता का त्याग–  जिन कार्यों से प्रभु प्रसन्न ना हों, उन्हें बिलकुल नहीं करना।
  3. रक्षा का विश्वास– मन में यह विश्वास रखना की प्रभु मेरी रक्षा करेंगे ही।
  4. रक्षक का वरण– एक मात्र प्रभु को ही अपना रक्षक मानना।
  5. अकिंचनता– सब कुछ भगवान् का ही है, मेरा कुछ नहीं यह दृढ़ धारणा।
  6. आत्मनिक्षेप– जो कुछ प्रभु ने दिया है, वह उनको अर्पण कर देना तथा में भगवान् का ही हूँ यह भावना रखना।

यह 6 प्रकार की शरणागति ही भक्ति का मूल आधार है।

                 भक्ति का यह सरल और सुगम स्वरूप जानकर श्रोता मुग्ध हो गए। भगवन्नामकीर्तन के साथ ही प्रवचन सम्पन्न हुआ।

                 जब स्वामीजी ने अगले दिन आगे के लिए प्रस्थान करना चाहा तो सेठजी ने विनम्रतापूर्वक अनुरोध कर उन्हें कुछ दिन और प्रवचन के लिए रोक लिया। अब ओ भक्तिरस की अखण्डधारा बहने लगी। प्रतिदिन हनुमानजी की पूजा-आरती होती। उसके बाद श्रीअग्रदेवरचित हनुमान अष्टक तथा तुलसीदासकृत हनुमानचालीसा का पाठ होता। तत्पश्चात् कथा-प्रवचन व भगवन्नाम-कीर्तन होता।

                 एक दिन पं. सदारामजी ने पूछा स्वामीजी! रामभक्ति में हनुमानजी की आराधना की क्या महिमा है ? समझाने की कृपा करें। स्वामीजी बोले- भगवान् श्रीराम और माता सीताजी हनुमान को पुत्र मानते हैं इसलिए हनुमानजी की भक्ति से वे परम प्रसन्न होते हैं। हनुमानजी भक्ति के आदि आचार्य हैं। उन्हें स्वयं माता जानकीजी ने राममन्त्र का उपदेश दिया है इसलिए भगवान्श्रीराम और सीतामाता की प्रसन्नता के लिए हनुमानजी की आराधना आवश्यक है।

पण्डितजी ने पूछा-स्वामीजी ! प्रपत्ति के अधिकारी कौन हैं ?

स्वामीजी ने उत्तर दिया –

सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणो मताः शक्ता अशक्ताः पदयोर्जगत्प्रभोः।

नापेक्ष्यते तत्र कुलं बलं च नो चापि कालो नहि शुद्धतापि वा ।।                  प्रपत्ति अर्थात् शरणागति के अधिकारी सभी हैं। इसमें समर्थ, असमर्थ, कुल, बल, समय, शुद्धता, आदि की अपेक्षा नहीं है; क्योंकि शरणागति का संबंध हृदय से ही है। शरणागत होते ही हृदय स्वतः शुद्ध हो जाता है। हृदय शुद्ध होते ही प्रभु की कृपा प्राप्त हो जाती है।

                  प्रवचनामृत के आनन्द से सेठजी तृप्त होते ही न थे। इस प्रकार एक माह बीत गया, तब स्वामीजी ने आगे प्रस्थान करने का निश्चय किया। प्रस्थान की तैयारी चल ही रही थी कि सेठजी के घर एक अनहोनी घटना घट गयी। सेठजी के पुत्र को सर्प ने डस लिया। बिलखते हुए सेठजी स्वामीजी के चरणों में लोट गये। स्वामीजी ने ध्यान लगाया तो पता चला कि सेठजी के पुत्र की आयु समाप्त हो चुकी थी। सर्प का डसना तो निमित मात्र था। सेठजी की अनुपम श्रद्धा-भक्ति व इस विपत्ति के कारण स्वामीजी का हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने भगवान श्रीरघुनाथजी से सेठजी के पुत्र की आयु बढ़ा कर उसे जीवित करने की प्रार्थना की। भक्त का अनुरोध टालना भगवान के वश की बात नहीं, भले ही अनुरोध को पूरा करने के लिए भावी को टालना पड़े। स्वामीजी की कल्याणमयी प्रार्थना से सेठजी के पुत्र को जीवनदान मिला। प्रार्थना की शक्ति अपार है।

                सेठजी ने रघुनाथजी का मन्दिर बनाने का संकल्प कर लिया। नींव के मुहूर्त के बाद ही स्वामीजी आगे के लिए प्रस्थान कर सके। इस घटना ने पं. सदारामजी की जीवनधारा ही बदल दी। उन्होंने भक्ति की जिस महिमा को प्रवचनों में सुना था उसका प्रत्यक्ष प्रमाण भी देख लिया था। अब उनका अधिकांश समय भगवान के स्मरण और कीर्तन में ही बीतने लगा। घर का दायित्व पुत्र हरनाथ को सौंपकर वे प्रायः रैवासा चले जाते। रामनवमी, जन्माष्टमी, हनुमानजयन्ती आदि उत्सवों पर तो वे रैवासा ही रहते। इस प्रकार उनका मन सब ओर से भगवान में ही लगा रहता था। भगवान में लगा मन स्वतः निर्मल हो जाता है।

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                      पण्डित हरनाथजी का जीवन भी भक्तिभाव में ही बीता।  वे घरेलू कार्यों से समय निकाल कर अग्रपीठ चले जाते। वहाँ सन्तसमागम और हरिकथा का आनन्द प्राप्त करते। उनका जीवन गृहस्थ सन्त की तरह ही बीता। हरनाथजी के पुत्र लच्छीरामजी को भक्ति के ये संस्कार विरासत में मिले। वे दादा और पिता के चरणचिह्नों पे चल के जीवन को कृतार्थ करने लगे । वे रुल्याणी ही नहीं आस-पास के गाँवों में भी एकमात्र शास्त्रनिष्णात पण्डित थे। रेवासा अग्रपीठ में आने वाले सन्तों और पण्डितों की संगति के कारण उनका वैदुष्य निखर गया। तेजस्वी चेहरा, लम्बा पुष्ट शरीर, ललाट पर सिन्दूर का तिलक, कन्धों को छूती लम्बी शिखा और कन्धों पर रामनामी दुपट्टा उनके व्यक्तित्व को विशिष्ट पहचान देते थे। आकृति के अनुरूप उनका स्वभाव भी एकदम मृदुल था। वाणी से अमृत बरसता था। विवाह, हवन, पूजन आदि के लिए दूर-दूर तक के गाँवों में उन्हें बुलाया जाता था। सम्वत् 1766 में सेवदड़ा के जागीरदार राव पहाड़सिंह का विवाह हुआ तो विवाह-संस्कार कराने उन्हें ही आमन्त्रित किया गया।

                     पण्डित लच्छीरामजी की पत्नी गायत्री का स्वभाव भी पति के अनुरूप ही था। उनके घर छह पुत्रों और एक पुत्री ने जन्म लिया। सबसे छोटा मोहनदास था। पुत्री कान्ही मोहनदास से बड़ी तथा अन्य भाईयों सीताराम, मंसाराम और मोतीराम आदि से छोटी थी। कान्ही के बड़े भाईयों के विवाह हो चुके थे। कान्ही भी विवाह के योग्य होने लगी थी। पण्डितजी ने उसके लिए श्रेष्ठ लड़के की खोज शुरू कर दी थी।

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                   मोहनदासजी का व्यक्तित्व बचपन से ही विलक्षण था। उनके जन्मकाल की ग्रहस्थिति, शुभ शकुनों व सामुद्रिक लक्षणों के द्वारा पण्डितजी ने जान लिया कि यह बालक बड़ा होकर सन्त बनेगा। बालक की मुखमुद्रा अत्यन्त मनमोहिनी थी। कान्ही का एकमात्र छोटा भाई होने के कारण उसे मोहन भैया से विशेष लगाव था। वह दिन भर उसी में रमी रहती। कभी उसे गोद में लेती, कभी चलना तो कभी बोलना सिखाती। माँ का तो वह लाडला था ही। माँ प्रातःकाल जगाते समय, भोजन कराते समय, नहलाते समय, और सुलाते समय कोई-न-कोई भक्तिगीत सुनाकर अपने प्यारे शिशु को रिझाती रहती। इस प्रकार मोहन को भक्तिरस माता के दूध के साथ मिला था। शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की तरह वह तेजी से बड़ा होने लगा।

                घर में नित्य हनुमान चालीसा का सामूहिक पाठ होता था। पाठ के बाद सब ‘बालाजी की जय’ बोलते। मोहनदास उछल-उछलकर ‘जय बालाजी’ का जयकारा लगाता हुआ मस्ती में झूमने लगता। माँ नित्य तुलसी के थाले में जल देती, सूर्य को अर्घ्य देती और फिर बालाजी को पत्र-पुष्प और प्रसाद चढ़ाती। यही उसका नित्य-नियम था। मोहन माँ के साथ ही लगा रहता। बचपन के संस्कार कच्चे घड़े पर खिंची हुई रेखा के समान अमिट होते हैं। मोहन को पाँच वर्ष की उम्र में ही हनुमान-चालीसा कण्ठस्थ हो गया। वह बड़े प्रेम से श्रीबालाजी को एक पाठ नित्य सुनाता। यों करते-करते उसकी हनुमानचालीसा और श्रीबालाजी में प्रीति हो गयी और वह उत्तरोत्तर बढ़ती गयी।

              छोटे-छोटे बालक मोहन के साथ खेलने के लिए उसके घर आते। मोहन के तो खेल ही निराले थे। खेल-खेल में वह कभी श्री बालाजी की पूजा करता, कभी पिता की तरह कीर्तन करता। कभी नाच-नाच कर जय बालाजी के जयकारे लगाता। साथी बालकों पर भी उसकी संगति का रंग चढ़ने लगा था। वे भी उसके साथ ताली बजा-बजाकर नाचते और आनन्द लूटते। कभी-कभी एक अपरिचित लड़का भी खेलने आ जाता था। सुन्दर-सलौना स्वरूप, बदन पर  केवल लाल लंगोटी के अलावा कोई वस्त्र नहीं, पूछने पर अपना नाम बाल्या बताता। मोहन का तो वह पक्का मित्र बन गया था।

              मोहनदास ज्यों-ज्यों बड़ा होता रहा, हनुमानचालीसा के पाठों की संख्या बढ़ती रही। नित्य एक पाठ से बढ़ कर संख्या पाँच, ग्यारह, इक्कीस तक पहुँच गयी। पाठ करते हुए उसे ऐसा आभास होता था कि साक्षात् श्रीबालाजी उसके मस्तक पर हाथ रखे हुए हैं और अपनी अमृतमयी दृष्टि से उस पर भक्तिरस की वृष्टि कर रहे हैं। उस समय वह भाव-विभोर हो जाता। आँखों से प्रेम के आँसू बहने लगते। मोहन की इस भक्ति-भावना से माता-पिता को अपार आनन्द मिलता।

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                   पं. लच्छीरामजी समय-समय पर रैवासा अग्रपीठ जाते रहते थे। गाँव में अन्न की खरीद करने हेतु तूनवा से आने वाले बियाणी वैश्य-परिवार के सेठजी भी कभी-कभार उनके साथ चले जाते। सेठजी बड़े धर्मनिष्ठ और उदार थे। उन्होंने लच्छीरामजी से एक बार रामनवमी के अवसर पर रूल्याणी के शिवमन्दिर में रामायण का नवाह पारायण कराया तो रैवासा से अग्रपीठाधीश स्वामी बालकृष्णदासजी को रुल्याणी आमन्त्रित किया।स्वामीजी मूलतः दाक्षिणात्य थे। वे संस्कृतभाषा के प्रकाण्ड विद्वान् अनेक शास्त्रों के ज्ञाता, तपस्वी और परमभक्त थे। उन्होंने अग्रपीठ में वेदाध्ययन केन्द्र स्थापित कर अध्यापनार्थ काशी के एक वैदिक विद्वान् को नियुक्त किया था। अनेक विप्रबालक अग्रपीठ में रह कर वेदाध्ययन करते थे। बहुत से विरक्त साधक स्वामीजी से श्रीभाष्य, श्रीरामप्रपत्ति, अध्यात्मरामायण आदि ग्रन्थों का अध्ययन करते हुए आत्मकल्याण की पारमार्थिक साधना में लगे रहते थे।

                 स्वामीजी नौ दिन रुल्याणी रुके। सांयकाल भजन-कीर्तन के साथ स्वामीजी का प्रवचन हुआ। कीर्तन के दौरान भावविह्वल हो नृत्य करते बालक मोहनदास पर जब स्वामीजी की नजर पड़ी तो वे देखते ही रह गये। सुन्दर सुघड़ शरीर, मुख पर मन्द-मन्द मुस्कान, प्रसन्नता से खिले हुए बड़े-बड़े नेत्र, संगीत की ताल और लय के साथ उठते सुकुमार चरण, स्वामीजी ने सामुद्रिक लक्षणों से पहचान लिया कि यह बालक महान सन्त बनेगा। वे उसे देखकर अत्यन्त आनन्दित हुए। भगवान के सच्चे भक्तों को भगवद्भक्त भगवान से भी प्यारे लगते हैं। किसी भक्त का मिलना उनके लिए भगवान के मिलन से भी अधिक सुखदायी होता है। बालक का परिचय प्राप्त कर पं. लच्छीरामजी के भाग्य की प्रशंसा करते हुए बोले कि इस बालक के जन्म से आप धन्य हो गये हैं। यह सेवा और भक्ति का मूर्तिमान स्वरूप ही है। उन्होंने बालक को अध्ययन हेतु अग्रपीठ भेजने का सुझाव दिया।

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