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‘माँ’ ममता का आधार – कुलदेवी

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आज का समाज-फिर आधुनिकता की छाप और उस पर नास्तिकता का दौर-ईश्वरीय स्वरूप की अवहेलना कोई नई बात नहीं। समाज में, वर्ण में सर्वप्रथम ब्राह्मण और ईश्वर का मुख माने जाने वाला यह वर्ण भी जब अपने कुलदेवता, कुलदेवी और कुल गणपति को नहीं जाने न ही पहचाने तो आश्चर्य होना स्वाभाविक है। ऐसी स्थिति में अपने कुल, कुल गणपति, कुलदेवी एवं कुलदेवता तथा कुल से सम्बंधित बातों की जानकारी प्राप्त करने की ललक एवं चेतना प्रसन्नता का विषय है एवं कुल के पुण्यों का उदय माना जाना चाहिए।

                 वर्ग, वर्ण, धर्म, जाति अवंटक एवं गौत्र के अनुसार कुल गणपति, कुलदेवता एवं देवी का भिन्न भिन्न होना सामाजिक व्यवस्था, देशकाल एवं परिस्थितियों के अनुसार होता आया है। इसमें शासक, प्रशासक, भाषा, बोली, प्रांत, प्रदेश एवं देश की स्थितियों का बहुत बड़ा हाथ रहा है।

                 मानव वर्गों एवं वर्णों में बंटा, पूजा विधि बदली, पूजा स्थल बदले। आवासीय एवं प्रवासीय स्थितियों ने प्रभाव डाला और परिवर्तन होता जाता रहा। इसमें मानवीय भावनाओं एवं श्रद्धा का बहुत बड़ा हाथ रहा। कहीं यह परिवर्तन स्वेच्छा से तो कहीं पर परिस्थितिवश हुआ, परन्तु किसी न किसी रूप, भाव व इच्छा के अनुसार होता रहा है।

                 मानवीय नस्लों में ‘माँ’ का स्थान सर्वोपरि रहा है और ‘माँ’ के उच्चारण में जहाँ स्नेह का सागर, ममता की धारा एवं वात्सल्य की अनुभूति सर्वोपरि रही है। कभी-कभी अर्थ की व्यापकता और गूढ़ता मनकों आल्हादित भी करती है। यथा ‘माँ’ शब्द को यदि विद्वानों की सोच के अनुसार समझें तो ‘माँ’ में ‘म’ शिव है। आ की मात्रा ब्रह्मा है। शिरों रेखा ‘-‘ विष्णु तथा चंद्र, अमृततत्व और चन्द्रमय बिन्दू अर्थात् बिन्दी शक्ति का प्रतीक कही जाती है। याने शिव, ब्रह्मा, विष्णु, अमृततत्व तथा शक्ति के समन्वित रूप को माँ कहा व माना जाता है। सृजन पोषण, विसर्जन अमृतत्व और शक्ति का केन्द्र मात्र एक तत्व है जो ‘माँ’ ही है। इसलिए ‘माँ’ हर क्षेत्र में वंदनीय है।

देवता या देवी का सीधा एवं सरल अर्थ है देने वाला या देने वाली। ‘माँ’ हमेशा देती है अतः वह देवी के रूप में पूजी जाए तो आश्चर्य कैसा? मानवीय समूह का बड़ा भाग व्यक्ति है, जो और उसी से उसका स्वरूप, आकार व प्रकार होता है। मनुष्य अपने कुल को वंश रूप में आगे बढ़ता है। एक से अनेक होता जाता है, परन्तु जड़ तो एक ही होती है और वह जड़ है ‘माँ’ क्योंकि ‘माँ’ के बिना उसका आधार बन ही नहीं पाता।

जगत् जननी शक्ति का स्रोत और अपने अनेक रूपों में सृष्टि का संचालन करती है। उसके नौ रूप पूर्णांक को दर्शित करते हुए अपने शून्य में समा जाने की प्रेरणा साधक को देते हैं। ‘माँ’ के इन स्वरूपों के अनेक नाम, पूजा स्थल-भाव, भाषा, वर्ग वर्ण एवं परिस्थिति के कारण होते रहे हैं, परन्तु पूजक का संबंध हमेशा उसकी श्रद्धा, विश्वास, आस्था, एवं भाव के अनुरूप रहा है। व्यक्ति हमेशा स्वयं एवं परिवार की सुरक्षा वांछना के साथ ‘माँ’ की शरण में जाता है और ‘माँ’ की गोद पाकर निर्भय एवं निश्चित हो जाता है। व्यक्ति, परिवार, कुनबा, समाज की एकाग्रता, एकरूपता से शक्ति के जिस रूप में भावात्मक रूप से जुड़ जाती है, वही ‘कुलदेवी’ के रूप में पूजी जाती है। ‘माँ’ के कुलदेवी रूप का पूजन सदियों से चला आ रहा है।  इसमें यदा कदा कन्या रूप में कुल में जन्मी बालिका अपने चमत्कारी गुणों के कारण से कुलदेवी रूप में पूजी जाती रही है और कतिपय प्रसंगों में कुलदेवताओं की प्रतिनिधि या वामांगी भी कुलदेवी के रूप में पूजी जाती है। यदाकदा पातिवर्त्य धर्म के पालन में नारी का सती हो जाना भी उसके कुलदेवी के रूप में पूजने का आधार बनता है साथ ही कुल की संन्यासिनी, तपस्विनी या त्यागी मूर्ति भी कुलदेवी का स्थान ले लेती है। इन सबके पीछे भावात्मक जुड़ाव, चमत्कार आधार और आस्था का प्रमुख स्थान स्वीकार किया जा सकता है। अंततोगत्वा यह स्वीकार करने में संकोच नहीं होता कि ‘माँ’ का वह स्वरूप, आकार, प्रकार, जो कुल में भावात्मक जुड़ाव, श्रद्धा, विश्वास, आस्था एवं  संरक्षण का आधार बनकर शक्तिरूप में पूजित होता वही कुलदेवी मानी जाती है।

जहां तक कुलदेवी के पूजन की बात है वहां केवल इतना ही कहा जा सकता है ‘जितना गुड़ उतना मीठा’। श्रद्धा, आस्था और भावना की गहराई से सात्विक भाव एवं भोग ‘माँ’ को अर्पित करने पर उसके अनुरूप प्रतिफल प्राप्त हो सकता है। सात्विकता, शुद्धता एवं समर्पण सर्वाधिक हितकारी माना गया है। साधक, पूजक व भक्त आदि अपनी कुलदेवी को जिस भाव, रूप या श्रद्धा से याद करता है। उसी अनुरूप कृपा का अधिकारी होता है। यहां यह बात ध्यातव्य है कि पुत्र कुपुत्र हो सकता है परन्तु माता कुमाता नहीं।

हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि साधक का इष्ट कोई भी हो, परन्तु अपनी कुलदेवी की आराधना के बाद ही वह अपने इष्ट को प्रसन्न कर पाता है। अन्यथा यह कहने में कोई संकोच नहीं कि जो अपनी ‘माँ’ को नहीं मानता उसका भाव कहीं और कैसे स्थिर हो सकता है।

आज समस्या यह हो रही है कि लंबे समय से शासन, प्रशासन, काल देश, परिस्थितियों वश हम अपनी कुलदेवियों को विस्मृत सा कर बैठे हैं। अब याद आने लगी है- चलो अच्छा है जागे तभी सवेरा। परन्तु हमें कुलदेवियों के नाम याद नहीं और याद है तो उनका स्थान, स्वरूप और पूजाविधि का ज्ञान नहीं। भाषा, बोली के कारण नामों के उच्चारण, लेखन और वर्णन में विभिन्नता आ गई है। अतः मेरा विद्वानों, साधकों, आराधकों से आग्रह है कि प्राप्त कुलदेवी के तत्सम, तद्भव रूप, भाषा, बोली की विभिन्नता को ध्यान में रखकर माँ के असली नाम, स्वरूप, आकार प्रकार का निर्धारण करें। अपने कुल के बड़वों (बही भाट, राव) जो वंशावली का आलेख रखते हैं से संपर्क कर जानकारी प्राप्त करें या कुल संबंधित ग्रंथों से, आलेखों से कथाओं, वार्ताओं से, बातों (लोक कथाओं) से जुड़कर विचार कर मंथन के बाद अपने को संतुष्ट करें।

‘माँ’ तो केवल ‘माँ’ है। उसे नाम रूप में याद करने पर ही अपनी संतान को संतुष्टि प्रदान करेगी। इसी कामना के साथ ‘माँ’ तेरे हर रूप, गुण को दसों दिशाओं एवं समस्त भावनाओं के साथ शत् शत् नमन्।

‘कुलदेवी ज्ञान चर्चा संगम’ से साभार, लेखक-  नन्द किशोर शर्मा ‘नेक’

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